याद है

याद है,
तुम और मैं
पहाड़ी वाले शहर की
लम्बी, घुमावदार,
सड़्क पर
बिना कुछ बोले
हाथ में हाथ डाले
बेमतलब, बेपरवाह
मीलों चला करते थे,
खम्भों को गिना करते थे,
और मैं जब
चलते चलते
थक जाता था
तुम कहती थीं ,
बस
उस अगले खम्भे
तक और ।

आज
मैं अकेला ही
उस सड़्क पर निकल आया हूँ ,
खम्भे मुझे अजीब
निगाह से
देख रहे हैं
मुझ से तुम्हारा पता
पूछ रहे हैं
मैं थक के चूर चूर हो गया हूँ
लेकिन वापस नहीं लौटना है
हिम्मत कर के ,
अगले खम्भे तक पहुँचना है
सोचता हूँ
तुम्हें तेज चलने की आदत थी,
शायद
अगले खम्भे तक पुहुँच कर
तुम मेरा
इन्तजार कर रही हो !

मैं तुम्हें कोई दोष नहीं देता

मैं तुम्हें कोई दोष नहीं देता

सब दोष अपने संग वरता हूँ।
जीवन की इस अनकही पहेली पर
स्वयम् के प्राण मैं हरता हूँ।

मेरे जीवन का उत्तरदायी कौन
यह न कोई पूछेगा

इस जीवन की अथाह व्यथा को
कौन अपने संग वरेगा?

चल निकला मैं अब
उस सफ़र पर,
जिसका न कोई अंत है,
जिसकी न कोई परिधि है,

पर मैं तुम्हें  कोई दोष नहीं देता,
जाने से पहले सब दोष स्वयं पर वरता हूँ।

पास खडा था भ्रष्टाचार

सुबह उठ कर आँख खुली तो पास खडा था भ्रष्टाचार,

अट्टहास लगाता हुआ, प्रश्न चिह्न लगाता हुआ.
जब पूछा मैंने, तुझमें इतने प्राण कहाँ से आये,
के तुम बिन पूछे, बिन बताए मेरे घर भी दौड़ आये.
हंसता हुआ, वो बोला, तुम शायद अवगत नहीं,
कल रात ही संसद में मुझे जीवनदान मिला है.
देश शायद सो रहा था, दिवा स्वप्न के बीज अपने घर में बो रहा था,
इतने में एक कानून आया, जिसने भ्रष्टाचार को मिटाने का संकल्प दोहराया.
बस उस कानून से मुझे जीवन दान मिला है,
अब तक तो मैं सिर्फ घर के बाहर सड़क पर, दफ्तरों में पाया जाता था,
अब मैं घर में, आपके साथ खड़ा,
अट्टहास करूँगा, आपकी बेचैनी पर,
मेरा जीवन हरण करने चला था जो चौकीदार,
उसे ही रिश्वत से मैंने अपने साथ मिला लिया…..

हाँ मैं चलती हूँ

हाँ मैं चलती हूँ

तुमने मुझे चलने से रोका
तुमने मुझे जीने से रोका
तुमने मुझे गाने से रोका
तुमने मुझे खाने से रोका

मेरे कदम कदम पर कांटे बिछाये
पर मेरे कदम कभी न रुक पाये

फिर भी मैं चलती हूँ
चलते चलते खिलती हूँ
चलते चलते जलती हूँ

मगर फिर भी मैं चलती हूँ

सोचते तो बहुत होंगे तुम
क्यों न मैं रुक पायी
क्यों न तुम मुझे रोक पाये?

मैं चलती हूँ क्योंकि
मेरे चलने से ही तुम चलते हो
गर मैं रुकी
तो तुम रुक जाओगे

तो मैं चलती हूँ
चलते चलते जलती हूँ
फिर भी मैं चलती हूँ।

गर तुम होते पास

गर तुम होते पास

तो श्वासों को पहचान मिलती
तो अधरों की वह प्यास बुझती
तो जीवन को नव पहचान मिलती
आते जब तुम मेरे पास
तो इक नव गीत मैं गुनगुनाता
मेरी नयी पहचान बनाता

लेट जाता उस गोद में
जिस गोद में बसता जीवन है
सहलाता उन केशों को
कर चक्षु को बंद जब स्वप्न लोक आता
तो सोचता ऐ प्रिये
के तुम होती तो जीवन ऐसा कटता
के जैसे चलता नदिया में जल है
के चलती जैसे धरती पर पवन है।

आओ नव इतिहास बनाएं
लगा पंख अपने ऊपर
किसी दुनिया में उड़ जाएँ।

मैं तुम्हें कोई दोष नहीं देता

मैं तुम्हें कोई दोष नहीं देता

सब दोष अपने संग वरता हूँ।
जीवन की इस अनकही पहेली पर
स्वयम् के प्राण मैं हरता हूँ।

मेरे जीवन का उत्तरदायी कौन
यह न कोई पूछेगा

इस जीवन की अथाह व्यथा को आखिर
कौन अपने संग वरेगा?

चल निकला मैं अब
उस सफ़र पर,
जिसका न कोई अंत है,
जिसकी न कोई परिधि है,

पर मैं तुम्हें  कोई दोष नहीं देता,
जाने से पहले सब दोष स्वयं पर वरता हूँ।

क्या बड़ा है?

धर्म और नैतिकता में से क्या बड़ा है? यह एक बेहद गंभीर प्रश्न है जिससे मैं इस समय रूबरू हो रहा हूँ एक पुस्तक में। मैं नास्तिक हूँ या आस्तिक तो भी नैतिक हो सकता हूँ, पर धार्मिक नहीं। यदि मैं सही मायने में धार्मिक हूँ तो नैतिकता को अपने अन्दर समाहित कर लेता हूँ, पर नैतिक होने पर मेरे लिए आवश्यक नहीं कि  मैं धार्मिक भी हूँ। मेरा नैतिक होना एक मजबूरी हो सकती है पर मेरा धार्मिक होना एक मजबूरी कभी भी नहीं। धर्म को किसी एक मत के साथ या एक सम्प्रदाय के साथ जोड़ कर देखना इसे छोटा बनाने जैसा है। धर्म अपने अन्दर राष्ट्रधर्म, मानवधर्म, मानवता, पवित्रता, आदर, सम्मान, ध्यान, समाधि लेकर आता है। पर नैतिकता अपने अन्दर लेकर आती है कुछ गाइड लाइंस कि यह करना नैतिक है या वह करना अनैतिक है। धर्म की कोई सीमा नहीं होती। धर्म सनातन है पर नैतिकता बदलती रहती है। आज के समय जो नैतिक है वह हजार वर्ष पहले अनैतिक रहा होगा या हो सकता है कि आने वाले समय में अनैतिक हो जाए। पर धर्म वहीँ खडा है जहाँ पहले था और आगे भी वहीँ रहेगा। धर्म कभी भी साम्प्रदायिक नहीं हो सकता, यदि वह है तो सच्चा नहीं हो सकता। धर्म एक सहिष्णुता के साथ आता है जो यह सिखाती है कि दूसरों के साथ कैसे जिया जाए। धर्म को संकीर्ण मानना अपने आप में संकीर्ण मानसिकता दिखाता है। तो धर्म क्या है ? यदि हम धर्म को नैतिकता से ऊपर रख ही देते हैं तो यह समझना आवश्यक है कि फिर धर्म क्या है ? क्या किसी एक भगवान की पूजा करना मात्र धर्म है अथवा धर्म इससे कहीं आगे चला जाता है? यदि हम भारतीय समाज को देखें तो स्वामी विवेकानंद जैसे विचारकों ने धर्म को अधिक वृहद व्याख्या दी है। यदि हम मान लें कि स्वामी जी ने हिन्दू धर्म से आगे बढ़कर मानवता का नाम लिया है अर्थात मानव धर्म! तो क्या हम यह मान लेंगे कि स्वामी जी धार्मिक नहीं थे। यह मानना बेमानी होगा। इसका मतलब यह हुआ कि धर्म किसी एक नाम से आगे है और उससे बड़ा है। यह एक मूक प्रश्न है जिसका समाज को उत्तर ढूंढना होगा।

धर्म को यदि हम छोड़ भी दें तो क्या नैतिकता काफी नहीं है जीवन को चलाने के लिए। यदि काफी है तो धर्म को आवश्यकता ही क्या है। यदि हम धर्म को अच्छे से पढने का प्रयास करें तो हमें पता चलेगा कि इसमें जो मुख्य नैतिक शिक्षाएं दी गयी हैं वे सब कुछ और नहीं अपितु नैतिक शिक्षा मात्र हैं एवं ये शिक्षाएं सभी धर्मों में एक समान पायी जाती हैं। इनके पैमाने भी समय समय पर बदलते रहते हैं। इस प्रकार एक समय पर धर्म एवं नैतिकता दोनों ही सार हीन हो जाते हैं एवं बचती है स्वतंत्रता।

जीवन की विशिष्टता

हमारे जीवन की विशिष्टता इस बात में है कि हम असंभव एवं मुश्किल परिस्थितियां का सामना किस प्रकार करते हैं। लघु बुद्धि वाला मनुष्य स्वयं को इस प्रकार की परिस्थितियों में समाप्त कर लेता है तथा स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य इस प्रकार की परिस्थितियों  में स्वयं को संयमित रख जीवन यापन करता है। कहते हैं यदि रास्ता मुश्किल हो तो वह हमेशा सुन्दर मंजिलों की तऱफ ले जाता है अतः आवश्यक है कि इस प्रकार के समय को हम संयमित करके निकलें।हर मुश्किल परिस्थिति हमें कुछ सिखाने आती है तथा साथ में लाती है बहुत से नव संघर्ष जो हम उन परिस्थितियों का सामना करने के बाद करते हैं।  स्थिर एवं विवेकशील बुद्धि का व्यक्ति सभी प्रकार की परिस्थितियों का समभाव से सामना कर आगे बढ़ता है।  न केवल हमें आगे  बढ़ने की आवश्यकता है ;अपितु आवश्यकता है कि हम आगे बढ़ते हुए अपनी बुद्धि को स्थिर रखें।

ज्ञान असत्य है

समस्त ज्ञान असत्य है एवं समस्त सत्य ज्ञान का स्वरुप है। समस्त सांसारिक ज्ञान केवल मात्र तर्क की शक्ति पर टिका है एवं जब तक  वह तर्क की सीमा को पार नहीं कर देता उसे संसार ज्ञान की श्रेणी में नहीं रखता। श्री रामकृष्ण परमहँस कहते हैं कि ज्ञान विश्वास से पैदा होता है न कि तर्क से। प्रथम आपकी बुद्धि स्वीकार करेगी उस उस अनजान को उसके बाद ही ज्ञान पैदा होगा एवं जन्म लेगा। यदि बुद्धि स्वीकार करने की स्थिति में होगी ही नहीं तो ज्ञान आ ही नहीं सकता। साकार ब्रह्म अथवा निराकार ब्रह्म दोनों ही उस ज्ञान के स्वरूप हैं। श्री परमहँस भी उस ज्ञान से जन्म लेते हैं तथा श्री दयानंद भी। जहाँ एक ओर हजरत मोहम्मद उस ही ज्ञान से जन्म लेते हैं तो दूसरी ओर ओशो भी उस ज्ञान का स्वरुप मात्र है। यदि हम इन परस्पर विरोधाभासी महापुरुषों को एक तर्क की श्रेणी में रखेंगे तो हम समझ पाएंगे कि सभी का  ज्ञान अधूरा है। वहीँ दूसरी ओर यदि किसी एक के ऊपर दृढ विश्वास किया जाए तो सभी पूर्ण हैं। अतः स्पष्ट है कि विश्वास कीजिये  कि तर्क के परे झाँका जा सकता है। माँ भारती आप सबका मार्ग प्रशस्त करे।

स्थिर बुद्धि की आवश्यकता

दुःखेष्वनुद्विग्मनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।2/56 (गीता)

भावार्थ: जो दुःख में विचलित न हो तथा सुख में प्रसन्न नहीं होता , जो आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त है, वह स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य ही मुनि कहलाता है।

ईश्वर कहते हैं कि मुनि अर्थात मनुष्य जीवन की सर्वोच्च अवस्था केवल उसे ही प्राप्त होती है जो सुख दुःख में सम भाव तथा आसक्ति, भय एवं क्रोध से स्वयं को मुक्त रखता है। मानव जीवन के सर्वोच्च लक्ष्यों में से एक लक्ष्य इस स्थिर बुद्धि को प्राप्त करना भी है। एकाँकी जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण अवस्था वह है जहाँ हम स्थिर बुद्धि हो सभी प्रकार के विघ्नों क़ा सामना करते हैं। जीवन में आशा एवं निराशा दोनों भाव हनिकारक हैँ। केवल कर्म भाव ही एक मात्र सत्य है तथा उसपर स्वयं का आधिकार भी श्रीभगवान गीता में देते हैं। कर्मफल के ऊपर हमारा कोई भी अधिकार नहीं है; यह महत्त्वपूर्ण शिक्षा आज भी उतनी ही आवश्यक है जितनी गीता के समय प्रासंगिक थी।

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2/57 (गीता)

भावार्थ: इस भौतिक जगत में जो व्यक्ति न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न ही दुःख के प्राप्त होने पर उससे घृणा करता हैं, वह पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है।

समस्त ज्ञान इस बात में ही है क़ि सुख एवम दुःख समभाव हैं तथा प्रज्ञा अर्थात बुद्धि के लिए यह समझना आवश्यक है। इस ज्ञान को समझे बिना मनुष्य के लिए जीवन यापन सदा ही एक समस्या रहेगा।

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।  2/62 (गीता)

भावार्थ: विषयोंका निरंतर चिंतन करनेवाले पुरुषकी विषयोंमें आसक्ति हो जाती है, आसक्तिसे उन विषयोंकी कामना उत्पन्न होती है और कामनामें (विघ्न पडनेसे) क्रोध उत्पन्न होता है।

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥2/63  (गीता)

भावार्थ: क्रोधसे संमोह (मूढभाव) उत्पन्न होता है, संमोहसे स्मृतिभ्रम होता है (भान भूलना), स्मृतिभ्रम से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्तिका नाश होता है, और बुद्धिनाश होने से सर्वनाश हो जाता है।

बुद्धि की समाप्ति के साथ ही मनुष्य की चेतना का नाश हो जाता है तथा इसके साथ ही मनुष्य एक न समाप्त होने वाले गर्त में गिर जाता है तथा अंततः स्वयं को समाप्त कर लेता है।

मनुष्य का सर्वोच्च कर्म यह है कि वह स्थिर बुद्धि से कार्य करे एवं आगे बढ़े; इस प्रकार भगवत इच्छा के अनुरूप जीवन सरलता एवँ सुगमता से चलता है।