धर्म और नैतिकता में से क्या बड़ा है? यह एक बेहद गंभीर प्रश्न है जिससे मैं इस समय रूबरू हो रहा हूँ एक पुस्तक में। मैं नास्तिक हूँ या आस्तिक तो भी नैतिक हो सकता हूँ, पर धार्मिक नहीं। यदि मैं सही मायने में धार्मिक हूँ तो नैतिकता को अपने अन्दर समाहित कर लेता हूँ, पर नैतिक होने पर मेरे लिए आवश्यक नहीं कि मैं धार्मिक भी हूँ। मेरा नैतिक होना एक मजबूरी हो सकती है पर मेरा धार्मिक होना एक मजबूरी कभी भी नहीं। धर्म को किसी एक मत के साथ या एक सम्प्रदाय के साथ जोड़ कर देखना इसे छोटा बनाने जैसा है। धर्म अपने अन्दर राष्ट्रधर्म, मानवधर्म, मानवता, पवित्रता, आदर, सम्मान, ध्यान, समाधि लेकर आता है। पर नैतिकता अपने अन्दर लेकर आती है कुछ गाइड लाइंस कि यह करना नैतिक है या वह करना अनैतिक है। धर्म की कोई सीमा नहीं होती। धर्म सनातन है पर नैतिकता बदलती रहती है। आज के समय जो नैतिक है वह हजार वर्ष पहले अनैतिक रहा होगा या हो सकता है कि आने वाले समय में अनैतिक हो जाए। पर धर्म वहीँ खडा है जहाँ पहले था और आगे भी वहीँ रहेगा। धर्म कभी भी साम्प्रदायिक नहीं हो सकता, यदि वह है तो सच्चा नहीं हो सकता। धर्म एक सहिष्णुता के साथ आता है जो यह सिखाती है कि दूसरों के साथ कैसे जिया जाए। धर्म को संकीर्ण मानना अपने आप में संकीर्ण मानसिकता दिखाता है। तो धर्म क्या है ? यदि हम धर्म को नैतिकता से ऊपर रख ही देते हैं तो यह समझना आवश्यक है कि फिर धर्म क्या है ? क्या किसी एक भगवान की पूजा करना मात्र धर्म है अथवा धर्म इससे कहीं आगे चला जाता है? यदि हम भारतीय समाज को देखें तो स्वामी विवेकानंद जैसे विचारकों ने धर्म को अधिक वृहद व्याख्या दी है। यदि हम मान लें कि स्वामी जी ने हिन्दू धर्म से आगे बढ़कर मानवता का नाम लिया है अर्थात मानव धर्म! तो क्या हम यह मान लेंगे कि स्वामी जी धार्मिक नहीं थे। यह मानना बेमानी होगा। इसका मतलब यह हुआ कि धर्म किसी एक नाम से आगे है और उससे बड़ा है। यह एक मूक प्रश्न है जिसका समाज को उत्तर ढूंढना होगा।
धर्म को यदि हम छोड़ भी दें तो क्या नैतिकता काफी नहीं है जीवन को चलाने के लिए। यदि काफी है तो धर्म को आवश्यकता ही क्या है। यदि हम धर्म को अच्छे से पढने का प्रयास करें तो हमें पता चलेगा कि इसमें जो मुख्य नैतिक शिक्षाएं दी गयी हैं वे सब कुछ और नहीं अपितु नैतिक शिक्षा मात्र हैं एवं ये शिक्षाएं सभी धर्मों में एक समान पायी जाती हैं। इनके पैमाने भी समय समय पर बदलते रहते हैं। इस प्रकार एक समय पर धर्म एवं नैतिकता दोनों ही सार हीन हो जाते हैं एवं बचती है स्वतंत्रता।