दोपहर आम आदमी को भारत का भविष्य घोषित किया,
शाम आई और आम आदमी ने बैठकर सोचा,
मेरी सरकार शायद आम आदमी की सरकार है,
मेरे दुःख से शायद किसी को सरोकार है,
जब-जब मैंने उठना चाहा, बाँध हाथ बिठा दिया,
जब-जब मैंने उड़ना चाह, बाँध पंख बिठा दिया,
शायद वह पुरानी यादें, अब बस यादें हैं.
इसी उधेड़ बुन में वह आम आदमी, सो गया.
उठ सुबह जब हुआ नया सवेरा,
प्रभात की किरणों ने आम आदमी का चेहरा जगमगाया,
आम आदमी ने खुद को सड़क पर पाया,
न पेट में अनाज, न तन पर कोई कपडा,
कहाँ गया जो मेरे पास था मेरा रैन बसेरा,
टूटा दिवा स्वप्न तो उसे याद आया,
कल था चुनाव, आम आदमी राजा था,
आज है आम आदमी की नयी सरकार,
और आम आदमी फिर से हाथ बाँध कर नए सवेरे को याद कर रहा है.
“सोच सोच कर मैंने सरकार बनायीं, पर फिर भी इतनी अक्ल मुझे न आई,
सरकार आम आदमी के लिए नहीं, सरकार आम आदमी से बनती है.
कार्य तब भी वह अपने लिए करती थी, कार्य अब भी वह अपने लिए ही करती है.”
-रविन्द्र सिंह ढुल/२५.१२.२०११