सरकार और आम आदमी…

मैं खड़ा हूँ,
मेरा अंतर्द्वंद मुझे जीने न दे रहा है,
जब सारा भारत खड़ा है तो मैं क्यों सो रहा हूँ?
ऐसा सोच आम आदमी एक दिन सारे भारत के साथ धरने पर बैठ गया,
सुबह पत्रकारों ने आम आदमी को नेता घोषित किया,

दोपहर आम आदमी को भारत का भविष्य घोषित किया,

शाम आई और आम आदमी ने बैठकर सोचा,
मेरी सरकार शायद आम आदमी की सरकार है,
मेरे दुःख से शायद किसी को सरोकार है,
जब-जब मैंने उठना चाहा, बाँध हाथ बिठा दिया,
जब-जब मैंने उड़ना चाह, बाँध पंख बिठा दिया,
शायद वह पुरानी यादें, अब बस यादें हैं.
इसी उधेड़ बुन में वह आम आदमी, सो गया.

उठ सुबह जब हुआ नया सवेरा,
प्रभात की किरणों ने आम आदमी का चेहरा जगमगाया,
आम आदमी ने खुद को सड़क पर पाया,
न पेट में अनाज, न तन पर कोई कपडा,
कहाँ गया जो मेरे पास था मेरा रैन बसेरा,

टूटा दिवा स्वप्न तो उसे याद आया,
कल था चुनाव, आम आदमी राजा था,
आज है आम आदमी की नयी सरकार,
और आम आदमी फिर से हाथ बाँध कर नए सवेरे को याद कर रहा है.

“सोच सोच कर मैंने सरकार बनायीं, पर फिर भी इतनी अक्ल मुझे न आई,
सरकार आम आदमी के लिए नहीं, सरकार आम आदमी से बनती है.
कार्य तब भी वह अपने लिए करती थी, कार्य अब भी वह अपने लिए ही करती है.”

-रविन्द्र सिंह ढुल/२५.१२.२०११

मेरी जाति “आम आदमी” है

मेरी जाति “आम आदमी” है.
सड़क पर फटे हाल एक पुरुष को खड़ा देख,नेता जी रुके,
उनसे पूछा,
तुम कौन हो भाई,
बड़े गरीब और पिछड़े हुए लगते हो,
कितने पढ़े लिखे हो, क्या करते हो,
परिवार में कौन कौन है, क्या क्या करता है,
तुम गरीबी रेखा से नीचे हो?
अगर हो तो तुम्हें चावल मिलेगा, तेल मिलेगा घर मिलेगा,
तुम पिछड़ी जाति के हो, अगर हो तो तुम्हें छात्रवृति मिलेगी,
नौकरी मिलेगी, प्रोत्साहन मिलेगा,
तुम अनुसूचित जाति के हो?
अगर हो तो तुम्हें सरकार नौकरी देगी, बच्चों को पढ़ाएगी,
सब कुछ तुम्हें मुफ्त मिलेगा, तुम बोलो भाई तुम कौन हो?
तुम महिला होते तो तुम्हें अलग से खड़े होने का मौका मिलता,
आरक्षण मिलता, सब कुछ मिलता, पर तुम कुछ बोलते नहीं, कुछ बोलो!
इतनी देर से परेशान वो पुरुष बोला,
नेता जी,
बड़ा दुःख है मुझे कि मैं इनमें से कुछ नहीं,
पर आप समझ पायेंगे ही नहीं मैं क्या हूँ,
भारत की सभी सरकारें मेरे नाम से मत लेती हैं,
मेरा नाम हर घोषणा पत्र में होता है, मेरे नाम से सब आगे बढ़ते हैं,
आपने भी कभी न कभी मेरी जाति का नाम जरूर सुना होगा,
पर दुःख है कि यहाँ मुझे पूछने वाला कोई नहीं,
मैं भूखा हूँ, अनाज नहीं मिलता,
मेरे बच्चे पढना चाहते हैं पर उन्हें दाखिला नहीं मिलता,
मैं पढ़ा लिखा हूँ, मुझे काम नहीं मिलता,
रहने को छत नहीं, पर मुझे घर नहीं मिलता.
नेता जी हैरान परेशान देखते रहे,
वो पुरुष बोलता रहा,
नेता जी मेरी जाति”आम आदमी”  है,
इस देश में सबको सब कुछ मिलता है,
पर मुझे कोई नहीं पूछता,
हर चुनाव में मैं मत का प्रयोग करता हूँ,
मेरे मत से सरकार बदलती है,
पर मैं पचास साल पहले भी भूखा था,
आज भी हूँ.
मैं आम आदमी हूँ,
क्या आप मेरी सहायता करेंगे?
नेता जी अनमना सा मूंह लेकर अपनी गाडी में चले गए,
और आम आदमी अगले नेता जी कि गाडी का इंतज़ार करने लगा.
—–रविन्द्र सिंह ढुल, १४-०६-२०११, जींद

मैं क्यों खड़ा हूँ?

मैं क्यों खड़ा हूँ?
भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन में आम आदमी क्यों खड़ा रहा? यह प्रश्न अब आम हो गया है. एक छोटी सी कविता इस बात को लेकर मैंने रची है.
समाचारों में देख कर चुन्नी लाल जी एक दिन जा पंहुचे धरने पर,
उन्हें देख पड़ोस के नेता जी परेशान,
पुछा तुम क्या करोगे चुन्नी लाल?
तुम न तो सामजिक कार्यकर्ता हो,
तुम न ही कोई सर्वमान्य नेता हो,
तुम्हारी गर कोई परेशानी है तो कह डालो,
अनशन धरने पर बैठ अपने ऊपर बोझ न डालो.
क्या तुम्हें किसी ने सरकार के विरुद्ध खड़ा किया है,
लगता है है विपक्ष ने तुम्हारा इस्तेमाल किया है,
मेरी बात मानो अपने घर को जाओ,
राजनीति नेताओं का काम होती है,
आपके लिए नहीं.
अब तक ठठक से गए चुन्नी लाल जी सोचने लगे,
क्या मैं इस देश में चलने लायक हूँ?
क्या मैं इस देश के अन्दर कुछ बोलने लायक हूँ?
क्या इस देश में अपनी आवाज उठाना राजनीति है?
क्या मैं राजनीति करने लायक हूँ?
तभी भीतर से आवाज आई,
चुन्नी लाल….!
तुम एक आम आदमी हो,
आम आदमी, तुम्हारे मत से नेता बनेंगे,
आगे जाके तुम्हारा खून पियेंगे,
फिर कहेंगे तुम्हें अधिकार कहाँ कानून तोड़ने का,
फिर हवालात में जाने से अच्छा अपने घर जाओ और भारत का मशहूर तमाशा देखो,
जहाँ आम आदमी की बातें तो होती हैं, पर उसकी सुने बिना.
—रविन्द्र सिंह ढुल, जींद, दिनांक: १५-०६-२०११

एक आम आदमी का गुनाह!!

एक आम आदमी का गुनाह!!
सड़क पर चलते एक आम आदमी को पुलिस ने पकड़ लिया. यह छोटी सी कविता उस आम आदमी और पुलिस की वार्ता का दृष्टान्त है. इसकी रचना मैंने खुद की है.
सड़क पर चलते उस आदमी को पुलिस ने पकड़ लिया,
उन्हें हवालात में बिठाया गया,
तुम क्यों आये पूछा बराबर वाले कैदी ने,
जवाब मिला पता नहीं.
उन्होंने दूसरे कैदी से पूछा,
तुम क्यों आये भाई हवालात में,
शकल से तो तुम भी शरीफ लगते हो?
ऐसा क्या किया जो यहाँ बैठे हो.
मैं तो बिजली का बिल समय पर भरता हूँ,
राशन के लिए पंक्ति में सबसे पीछे खड़ा होता हूँ,
बस में जाते हुए खड़ा होकर सफ़र करता हूँ,
नौकरी करते २० साल हुए पर मेरे अफसर को मेरा नाम नहीं पता,
भ्रष्टाचार मैं करता नहीं, किसी अबला का अपमान मैं करता नहीं,
तुम बताओ भाई तुम्हें क्या हुआ?
भाई मेरी भी यही गाथा है,
पर मेरी गाथा में अलग ये है की मेरे पास नौकरी नहीं है,
अपने माता पिता की सेवा करता हूँ,
नौकरी के लिए पंक्तियों में लगता हूँ,
मैं तो नौकरी के लिए किसी नेता के पास नहीं जाता,
कभी किसी को पैसा नहीं खिलाता,
तो फिर मैं यहाँ क्यों?
पास में खड़ा पुलिस अफसर जो ये सब सुन रहा था,
बोला-
भाई सड़क पे तो तुम दोनों सही थे,
महंगाई की मार से तुम दोनों त्रस्त हो,
कभी पुलिस स्टेशन देखा नहीं,
कभी बेईमानी की नहीं,
पर फिर भी मुझे तुम्हें पकड़ना पड़ा,
क्योंकि तुम एक आम आदमी हो,
और आम आदमी होना भारत में गुनाह है.
दोनों व्यक्ति दंग , एक दूसरे को देखते रह गए,
पुलिस वाला बोला,
भाई अगर तुम वो सब करलेते,
तो तुम यहाँ शासन करते और……
और…..
कोई और आम आदमी अन्दर होता,
तुम नहीं…..!!!
-रविन्द्र सिंह, दिनांक १२-०६-२०११, जींद