पास खडा था भ्रष्टाचार

सुबह उठ कर आँख खुली तो पास खडा था भ्रष्टाचार,

 

अट्टहास लगाता हुआ, प्रश्न चिह्न लगाता हुआ.
जब पूछा मैंने, तुझमें इतने प्राण कहाँ से आये,
के तुम बिन पूछे, बिन बताए मेरे घर भी दौड़ आये.
हंसता हुआ, वो बोला, तुम शायद अवगत नहीं,
कल रात ही संसद में मुझे जीवनदान मिला है.
देश शायद सो रहा था, दिवा स्वप्न के बीज अपने घर में बो रहा था,
इतने में एक कानून आया, जिसने भ्रष्टाचार को मिटाने का संकल्प दोहराया.
बस उस कानून से मुझे जीवन दान मिला है,
अब तक तो मैं सिर्फ घर के बाहर सड़क पर, दफ्तरों में पाया जाता था,
अब मैं घर में, आपके साथ खड़ा,
अट्टहास करूँगा, आपकी बेचैनी पर,
मेरा जीवन हरण करने चला था जो चौकीदार,
उसे ही रिश्वत से मैंने अपने साथ मिला लिया……रविन्द्र सिंह ढुल/२८.१२.२०११

धर्मनिरपेक्षता

रूचीनां वैचित्र्य अदृजुकुटिलनानापथजुषां.
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसमर्णाव इव. (शिव महिम्नः स्तोत्र, ७ )

अर्थात हे शिव, जिस प्रकार विभिन्न नदियाँ विभिन्न पर्वतों से निकलकर सरल तथा वक्र गति से प्रवाहित होती हुई अंततः समुद्र में ही मिल जाती है, उसी प्रकार अपनी विभिन्न प्रवृतियों के कारण जिन विभिन्न मार्गों को लोग ग्रहण करते हैं, सरल या वक्र रूप में विभिन्न लगने पर भी वे सभी लोग तुम तक ही पंहुचते हैं.

उपरोक्त श्लोक हिन्दू धर्म के सिद्धांत “सर्व धर्म समभाव” को प्रदर्शित करने वाला एक बेहद शानदार श्लोक है. यह आंग्लभाषा के शब्द “secularism” से बिल्कुल.  अलग है. आज कल धर्मनिरपेक्षता को अलग अलग तरह से परिभाषित करने की होड़ सी लगी है. मैं इस परिभाषा को राजनैतिक न बनाते हुए सीधे सीधे परिभाषित करने का प्रयास करता हूँ, जैसा कि हिन्दू धर्म में किया गया है. इस सिद्धांत को शब्द कोष के द्वारा परिभाषित करना बेहद आसान पर विचारों में समायोजन करना उतना ही कठिन एवं दुरूह कार्य है. धर्मनिरपेक्षता अर्थात किसी धर्म विशेष के लिए अपनी अपेक्षा न रखना, यह है इसका सीधा साधा शब्दकोष का अर्थ. पर यह लिया जाता है किसी और रूप में. इसे परिभाषित किया जाता है अपने अपने तरीके से एवं अपने अपने दृष्टिकोण से. गीता में कृष्ण कहते हैं”हे अर्जुन! जग में जहां जहां भी अच्छा कार्य होता है, धर्म का कार्य होता है, वहां मैं पाया जाता हूँ” तो प्रभु ने धर्मनिरपेक्षता को आयाम देते हुए कहा कि इसका अर्थ है सभी प्रकार की धार्मिक विचारधारा को सम्मान देना. तो आप सीधे सीधे देख सकते हैं फर्क दोनों विचारधाराओं में. एक कहती है किसी धार्मिक विचार को तवज्जो न दो, दूसरी कहती है सभी धर्मों को एक नजर से देखो और उनके विचारों का भी सम्मान करो.

उपरोक्त का सीधा सीधा मतलब निकालें तो वह यह होगा कि यदि किसी जगह पर किसी दुसरे धर्म से कोई सही विचार ग्रहण कर सकते हैं तो हम सही मायने में धर्म निरपेक्ष होंगे. अपने या दूसरों के धर्म या उनकी मान्यताओं को अधिक तवज्जो देने की आवश्यकता नहीं है. बस अपने विचार पर अडिग रहिये, यदि वह विचार सही है, वह मान्यता सही है तो बच जायेगी, वरना समाप्त हो जायेगी. चाहे शिव महिम्नः स्तोत्र हो या गीता, एक ही विचार दिखेगा कि लक्ष्य एक प्रभु तक पंहुचने का है, रास्ता चाहे कोई भी हो, पंहुचेगा एक ही जगह. तो हमारा विचार किसी और के विचार से श्रेष्ट कैसे हुआ? यदि अपने विचार को श्रेष्ट बनाना है तो अपनी विचारधारा को समृद्ध बनाना भी हमारा काम है. हिन्दू धर्म सहिष्णु है, यही हमारी विचारधारा है. यही एक कारण है जो स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार हमारी संस्कृति के जीवित रहने का कारण है. क्या कारण है ग्रीक, मिस्र या मेसोपोटामिया के लोग समाप्त हो गए, या मंगोल समाप्त हो गए? हम बचे हैं हमारे दृढ विचार धारा के कारण जो हमें यह सिखाती है “उदार चरितानाम वसुधैव कुटुम्बकम” अर्थात उदार चरित वालों के लिए तो सारी धरती एक कुटुंब के समान है.

अतः अपनी धर्मनिरपेक्षता को नया आयाम दीजिये, इसे धर्म के प्रति उदासीनता नहीं, वरना धर्म के प्रति जागरूकता बनाइये. निकाल फैंकिए ऐसे किसी भी विचार को जो संकीर्ण बनाता है आपकी मानसिकता को या आपको विनाश की और लेकर जाता है. माँ भारती आपके मार्ग को प्रशस्त करे.

रविन्द्र सिंह ढुल/२४.१२.२०११

कानून की देवी तेरी जय जय कार

कानून की देवी तेरी जय जय कार,
छाया जब हर जगह अन्धकार,
राजा करता हो जनता पर अत्याचार,
ले हाथ में तराजू, जब उठाया तुमने यह बीड़ा,
हिल गयी सरकारें, पलट गए ताज.
कहती सरकारें, सीमा में नहीं कानून अब,
देवी करती सरकार पर अत्याचार,
पर पूछती है कलम मेरी इन सरकारों से,
क्यों छीना निवाला गरीब का, क्यों फैलाया भ्रष्टाचार.-रविन्द्र सिंह ढुल/दिनांक २३.१२.२०११