भारत की आद्र्भूमियाँ(WETLANDS) और भारत सरकार की विफलता

2010 में जब भारत सरकार ने आद्र्भूमियों के संरक्षण और प्रबंधन के लिए नियम बनाए थे तो सबको आशा थी के जयराम रमेश के पर्यावरण मंत्री होने के नाते शायद सरकार कोई ठोस कदम उठाए, पर यह कानून भी अन्य कानूनों की तरह बिना धार की तलवार बना दिया गया. पूरे विरोध के बावजूद भी इसे 2011 में सरकार ने अधिसूचित कर दिया. २ फरवरी को विश्व आद्र्भूमि दिवस पर शायद ही किसी मीडिया हाउस ने या सरकारी संस्थान ने कोई सार्थक प्रयास किया हो. यहाँ हम यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि कानून बनाने में क्या भूल हुई और क्या खतरे हैं भारत की आद्र्भूमियों को.
नदियों, जलाशय एवं जमीनी पानी की तरह ही आद्र्भूमि भी जलीय चक्र का एक बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. ये न केवल जमीनी पानी को रिचार्ज करने के काम आती हैं, अपितु जैविक विविधता, जल स्वच्छीकरण, पक्षियों के लिए आराम करने की जगह, जलवायु नियंत्रण आदि कई महत्वपूर्ण कार्य करती हैं. इनकी प्रयावरण की महत्ता को देखते हुए, विश्व समुदाय ने मिलकर 1971 में रामसर अभिसमय(Convention) में इन्हें संरक्षित करने का संकल्प किया था एवं ऐसी आद्र्भूमियों को चिह्नित करने का बीड़ा उठाया था जो अंतर्राष्ट्रीय महत्ता रखती हैं. भारत में ऐसी आद्र्भूमियों की संख्या 25 है जो रामसर अभिसमय के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय आद्र्भूमि हैं.
इनकी महत्ता को देखते हुए केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय आद्र्भूमि संरक्षण प्रोग्राम भी 1985-86 में घोषित किया था, पर वह भी आशाओं के अनुरूप कार्य नहीं कर पाया.
इन नियमों की सबसे बड़ी कमी यह है कि आद्र्भूमियों के संरक्षण का सारा जिम्मा केंद्र एवं राज्य सरकार के पास है. लगभग सभी आद्र्भूमि; चाहे वे मानव निर्मित हों या प्राकृतिक ; अपने आस पास एक बड़े समाज का भरण पोषण करती हैं. इनमें मछली पकड़ने वाले, खेती करने वाले एवं अन्य छोटे मोटे कार्य करने वाले असंख्य लोग हैं. भारत के कानून में इन लोगों को कोई स्थान नहीं दिया गया है. हालांकि नियम ये सब गतिविधियाँ सरकार के नियंत्रण में चलाने की अनुमति देते हैं परन्तु इन लोगों की सलाह और इन लोगों के मेलजोल के बिना आद्र्भूमियों का संरक्षण हो पायेगा यह मुश्किल लगता है.
दूसरी महत्त्व पूर्ण कमियाँ इन नियमों में यह हैं कि लोकल मशीनरी जैसे पंचायत, जिला परिषद् को कोई भी रोल नहीं दिया गया है. इनके पूरे सहयोग के बिना, एवं सलाह के बिना आद्र्भूमि संरक्षण संभव हो पायेगा यह मुश्किल है. लोकल मशीनरी न केवल एक महत्त्वपूर्ण रोल अदा कर सकती हैं बल्कि इनकी सहायता से आद्र्भूमि के आस पास रहने वाले जन-मानस को भी शिक्षित किया जा सकता है. यह एक सत्य है कि कानून बनाना कभी भी किसी समस्या का हल नहीं कर पाया है, इसका हल केवल शिक्षा से हो सकता है. जब तक आस पास के लोग इसे समझेंगे नहीं कि आद्र्भूमि महत्वपूर्ण क्यों है, इनका संरक्षण करना संभव कैसे हो पायेगा. यहाँ यह कहना महत्वपूर्ण होगा कि पिछले दस पन्द्रह सालों में भारत अपनी 38% आद्र्भूमियों के एरिया को खो चुका है और इसके विभिन्न कारण हैं. यदि अब भी शिक्षित नहीं किया गया समाज को तो बहुत देर हो जायेगी.
अगली कमियां इन नियमों में यह है कि नियमों में एक वर्ष के भीतर भीतर आद्र्भूमियों की सफाई का एक असंभव कार्य करने का बीड़ा उठाया गया है पर यह कहीं भी लक्षित नहीं है कि यह कैसे होगा और इसके लिए क्या क्या क्रिया-कलाप किये जायेंगे. जो कार्य भारत में पिछले साठ वर्षों में नहीं हो पाया, वह एक वर्ष में हो जाएगा यह असंभव  लगता है.
विभिन्न कमियों में से एक कमी यह भी है कि आद्र्भूमि को नुकसान पंहुचाने वाली गति-विधियों को करने वालों को कितनी सजा मिलेगी. क्या यह आवश्यक नहीं था कि एक कठोर सजा का प्रावधान किया जाता, जबकि समस्त भारत में शिकारी, जल प्रदूषण, गैर कानूनी मछली पकड़ने वाले आद्र्भूमियों को एक ऐसा नुक्सान पंहुचा रहे हैं जो कभी भी ठीक नहीं हो पायेगा. अब ज़रा देखिये, कि सरकार की अनुमति से कोई भी गतिविधि की जा सकती है आद्र्भूमियों में; ज़रा सोचिये कि इसका आद्र्भूमि को फायदा होगा या नुक्सान. अच्छे प्रयावरण को संविधान का एक मौलिक अधिकार माना गया है (देखिये चमेली सिंह बनाम उत्तर प्रदेश सरकार, 1996 सुप्रीम कोर्ट).
आद्र्भूमियों को चिह्नित करने का तरीका भी गलत है. मुख्य नदी धारा को आद्र्भूमि नहीं माना गया है. अधिकतर आद्र्भूमि किसी न किसी जलधारा से ही निर्मित होती हैं. जब तक जलधारा में प्रदूषण एवं अन्य गैरकानूनी गतिविधियों को रोका नहीं जाएगा,तब तक आद्र्भूमि संरक्षित हो जायेंगी यह संदिग्ध है. हरियाणा की एक महत्वपूर्ण आद्र्भूमि है सुल्तान्पुर(गुडगाँव); यह मुख्य रूप से यमुना से आये जल से निर्मित है. यमुना के प्रदूषण ने इस पर इतना गहरा प्रभाव डाला है कि इसका जल काला हो गया है. यही हाल पंजाब की हरिके आद्र्भूमि का है जहां सतलुज और रावी का प्रदूषण एक कठिन परिस्थिति उत्पन्न कर रहा है.
हमें सोचना चाहिए और समझना भी चाहिए कि आद्र्भूमि प्रयावरण संरक्षण के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण हैं. न केवल सूखे के समय, बल्कि हर मुश्किल परिस्थिति में प्रयावरण के संतुलन को बनाए रखने में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है. पर सरकारें कुछ नहीं कर रही हैं और सभी प्रकार की गैर कानूनी गतिविधियाँ जैसे मछली पकड़ना, शिकार, खनन, जल प्रदूषण यहाँ पर धड़ल्ले से चल रहा है. यदि हम आज भी न संभलें तो बहुत देर हो जायेगी और नुक्सान ऐसा होगा जिसकी भरपाई आने वाली सदियाँ भी नहीं कर पाएंगी.

भारतीय भाषाओँ का विनाश और इंग्लिश

लार्ड मैकाले ने भारत में ब्रिटिश शिक्षा पद्दति को जब सख्ती से लागू किया था तो उसने ब्रिटिश सरकार को यह विश्वास दिलवाया था कि भारत में अंग्रेजी और अंग्रेजियत का प्रचार एवं प्रसार यदि किया गया तो भारत की संस्कृति धीरे धीरे समाप्त हो जाएगी और भारत की आने वाली पीढियां एक ऐसे समय में पैदा होंगी जब वे सिर्फ अंग्रेजी में सोचेंगे, अंग्रेजी में पढेंगे और अंततः यदि ब्रिटिश वहां न भी रहे तो भी सांस्कृतिक रूप से भारत हमेशा के लिए ब्रिटेन का गुलाम हो जाएगा. इस ही नीति के तहत उस समय प्रचलित हिन्दुस्तानी, उर्दू और हिंदी जैसी प्रमुख भाषाओं की जगह शिक्षा के लिए अंग्रेजी का प्रयोग किया गया. तीस चालीस साल आते आते भारत में एक ऐसी जमात तैयार हो गयी जो हिंदी और हिन्दुस्तानी को अपनी शान के खिलाफ और संस्कृत को मृत भाषा मानती थी. जब भारत आजाद हुआ तो संविधान निर्माताओं के ऊपर नया संकट पैदा हुआ, उन्हें यह तय करना था के भारत की राष्ट्रीय भाषा क्या होगी. महात्मा गाँधी के शब्दों में,” जो सभ्यता अपनी पृथकता और भाषा को त्याग देगी वह मृतप्राय हो जायेगी“. एक लम्बी चौड़ी बहस के बाद यह तय किया गया कि भारत वर्ष की मुख्य भाषाओं को संविधान में मान्यता दी जायेगी. अंग्रेजी को शासकीय भाषा के रूप में प्रयोग किया जाएगा और 1965 तक उसे भारत से चलता कर दिया जाएगा. पर इस सन तक आते आते भारत कई हिंदी विरोधी दंगों से गुजरा जिनमें से मुख्य दंगे मद्रास में हुए जहां पर लगभग अस्सी विद्यार्थियों ने स्वयं को आग लगा कर मृत्यु के हवाले कर दिया. इन सब का कहना था कि हिंदी नहीं उनकी अपनी भाषा राष्ट्रीय भाषा बने. अतः एक संविधानिक संशोधन लाकर १९६५ को वैकल्पिक साल बना दिया गया. पर हिंदी और अन्य भाषाओं को बचाने के लिए इच्छा शक्ति तब तक समाप्त हो गयी थी क्योंकि एक पूरी पीढ़ी तैयार हो चुकी थी जो अंग्रेजी को अपने जीवन का अभिन्न अंग एवं अन्य भाषाओं को सौतेला समझती थी. विश्व की सबसे समृद्ध सांस्कृतिक विरासत एवं सबसे महान भाषा संस्कृत की जननी इस भारत भूमि पर उसकी अपनी भाषाएँ बेगानी हो गयी. एक कवि की हिंदी की उपेक्षा पर एक दर्दनांक कविता से समझें तो ,“खाट पर पसरी हुई मेहमान अंग्रेजी के साथ, अपने घर में हिंदी की लाचारगी को सोचना” . इस ही दुर्दशा को देख कर भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी कहा था
,”निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।

अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन, पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।।

पर न तो अंग्रेजी रुकी और न ही भारतीय भाषाओं का मान मर्दन रुका. क्या आप जानते हैं कि 1961 की जनगणना में 1652 मातृभाषाओं की सूची बनी थी. जो 1971 में घटकर 109 रह गई. 1971 की जनगणना में जिन भाषाओं को बोलने वाले दस हजार से कम लोग थे, सरकार ने उन्हें गिनना भी मुनासिब नहीं समझा और ऐसी सभी भाषा या बोलियों को ‘अन्य’ की एक श्रेणी में डाल दिया. फिर एक के बाद एक भाषा या बोलियां खत्म होती रहीं, लेकिन किसे परवाह है? आज की पीढ़ी हिंदी को इंग्लिश में, इंग्लिश को अन्य भाषाओँ में मिलाती है. क्या आपको नहीं लगता कि जंगल बचाओ आन्दोलन, शेर बचाओ आन्दोलन की तरह भारत वर्ष में भाषा बचाओ आन्दोलन की सख्त आवश्यकता है. यदि प्रयास नहीं किये गए तो भारत की भाषाएँ विनष्ट हो जायेंगी. पर यहाँ सुनने को कौन बैठा है? हमारी पीढ़ी में कितने लोगों को अपनी मातृभाषा में एक से सौ तक की गिनती आती है? पर अंग्रेजी पोएम अवश्य आती होंगी!
इस व्यथा ने अंतरात्मा को झझकोर दिया है और समझ नहीं आ रहा है कि क्या बोलूं. इतना कर सकता हूँ कि कम से कम मेरे जीवन में हिंदी और भारतीय भाषाएँ हमेशा सर्वोपरि रहेंगी.

क्रांति का अर्थ

क्रांति का अर्थ:
क्रांति का आज कल हर जगह मजाक उड़ाया जा रहा है.कभी ये आन्दोलन तो कभी वो आन्दोलन, लगता है जैसे भारतवर्ष में आंदोलनों की बहार आ गयी है.पंद्रह अगस्त क्या आई रामदेव जी ने अगस्त क्रांति का ऐलान कर दिया. कुछ ही दिन बीते थे जब अन्ना हजारे जी एक क्रांति का नेतृत्व कर रहे थे….अब ज़रा जन-मानस को कौन समझाए कि “अगस्त क्रांति” का भारत वर्ष में दूसरा उदाहरण कभी भी पैदा नहीं हो पायेगा. जमीर के बिना क्रांति संभव नहीं है…यदि हमारे विचार पवित्र हैं तो हम अवश्य एक ऐसी क्रांति ला पायेंगे जो समाज को कुछ हद तक बदलने में सहायक हो. पर तब तक हमें प्रयास अवश्य करने होंगे. अब ज़रा क्रांति के नायकों के बारे में बात कर ली जाए. एक बात पूरी तरह से सही है कि क्रांति कभी भी कोई नायक पैदा नहीं कर सकता. इसका उल्टा बिल्कुल सही है, क्रांति हमेशा से नायक पैदा करती रही है…जनता जब व्यवस्था परिवर्तन के लिए उठ खड़ी होती है तो नायक अपने आप मिल जाते हैं. भारत में यह हमेशा एक प्रश्न जनमानस में कोंधता रहता है कि क्या भारत वर्ष को गाँधी जी ने आजादी दिलवाई थी? इसके लिए हमें गाँधी जी को समझना होगा. उन कारणों को समझना होगा जो गाँधी जी को वह बना गए जो वे आज हैं. एक सीधी साधी वकालत करने वाला और सफल बैरिस्टर किस लिए लंगोट पहन कर इतिहास बनाने कूद पडा. इसका उत्तर आपको दक्षिण अफ्रीका में उस समय उठ रहे विद्रोह में मिलेगा जिसका शांति पूर्वक नेतृत्व करके गाँधी जी भारत में एक नायक के रूप में प्रथम विश्वयुद्ध के समय जाने गए. भारत में उसका उत्तर आपको उनके राजनैतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले और उस समय के सैंकड़ों बड़े नेताओं में मिलेगा जिनकी विचारधारा नें गाँधी जी को एक धोती में आने में मजबूर किया. क्या गाँधी जी ने अफ्रीका में विद्रोह पैदा किया या अफ्रीका में विद्रोह से गांधी जी पैदा हुए? क्रान्ति के नायक का उत्तर आपको यहाँ मिलेगा. आज के समय में जनमानस उबल पड़ने का बहाना ढूंढ रहा है. व्यवस्था परिवर्तन के लिए आवाज उठाने वाले हर एक नेता के साथ लाखों लोग खड़े हो जाते हैं. फिर वे नायक घमंड में चूर अपने आपको उस क्रांति का जनक मान लेते हैं जिसको पैदा करने की ताकत एक व्यक्ति में कभी भी नहीं हो सकती. हाँ ये हो सकता है कि वह व्यक्ति अपनी विचार धारा से क्रांति की दिशा को तय कर दे या उस व्यक्ति के द्वारा दिखाए गए रास्ते पर जनमानस को सफलता मिले. जय प्रकाश नारायण के आन्दोलन के समय राष्ट्र कवि दिनकर की कविता”सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” क्रांति के सही स्वरुप को दर्शाती है. आवश्यक नहीं कि मैं अपने विरोध को केवल एक रूप में प्रकट करूँ..किसी भी क्रांति में इतनी ताकत अवश्य होती है कि वह सभी विचारधाओं को समाहित करले. गांधी जी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने भगत सिंह या चन्द्र शेखर आजाद! तो फिर क्रांति का केवल एक नायक कैसे हुआ? अठारह सो सत्तावन के विद्रोह को झांसी वाली रानी कि बहादुरी के लिए याद रखा जाता है, क्या उस क्रांति में मंगल पण्डे, तात्यां टोपे, नाना साहिब या उनके जैसे हजारों नायकों का कोई योगदान नहीं था. उस क्रांति ने वे सब नायक पैदा किये थे.
एक पुराना दोहा है जो क्रांति के नायक को परिभाषित करता है ” शूरा सो पह्चनिए, जो लडे दीन के हेत. पुर्जा पुर्जा कट मरे, कबहूँ ना छाडे खेत “. क्या ऐसा शूरवीर केवल एक या दो होते हैं. क्या भगत सिंह को याद करते हुए हम दुर्गा भाभी को भूल जाते हैं या ग़दर पार्टी के नायक करतार सिंह सराभा को भूल जाते हैं. क्या हम पटेल को समझे बिना गाँधी को समझ पायेंगे. क्या इतिहास इस बात का गवाह नहीं है कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के द्वारा उठाया गया छोटा सा कदम जो शायद भारत को आजाद करवाने में भले ही कारागार न साबित हुआ हो, वह कदम इतना महान था कि नेताजी के नाम पर आज भी हजारों लाखों युवा जीने मरने की कसमें खाते हैं. क्रांति के नायक का केवल एक ही धर्म है कि वह अपने स्वार्थ के लिए नहीं राष्ट्र हित में लड़े फिर चाहे उसे सफलता मिले या असफलता, क्रांति असफल नहीं होती.यही ऊपर के दोहे का सार है. क्या आज के हमारे तथाकथित नायक इस परिभाषा में सटीक बैठते हैं? दिनकर की एक और महान रचना के कुछ शब्द उदृत करना चाहूँगा “चिटकाई जिनमें चिंगारी,जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर-लिए बिना गर्दन का मोल। कलम, आज उनकी जय बोल” ये है क्रांति और ये हैं क्रांति के नायक.
क्रांति कभी असफल नहीं होती, जब तक कि वह अपने अंजाम तक न पंहुच पाए. यदि असफल हुई तो वह क्रांति नहीं हो सकती. रूस के शब्दों में कहें “Long Live Revolution” यानी “इन्कलाब जिंदाबाद”. किसी भी व्यक्ति विशेष से ऊपर राष्ट्रप्रेम से भरपूर क्रांति के अर्थ को छोटा होते देख कर दुःख होता है.
पर क्या भारत सीखेगा? क्या इसके नागरिक सीखेंगे यह बात कि मतभेद होना कभी भी क्रांति को कमजोर नहीं करता अपितु उसे सही दिशा देता है क्योंकि कमी पकड़ में आती है.या क्रांति अभी नहीं आई है, ज़रा सोचिये!
माँ भारती आपके मार्ग को प्रशस्त करे. जय हिंद!