एक बेरोजगार

आज मानव सड़क पर चला जा रहा था। उसके मन में कई तरह की गुत्थियां चल रही थीं।नौकरी मिल नहीं रही थी, ऊपर से माँ उसकी चिंता में मरी जा रही थी। मानव के तीन भाइयों में वह ही ऐसा था जिसके पास नौकरी नहीं थी, इसलिए उसे घर में कोई बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती थी। पिता जी कुछ चाय बनाने की दुकान  के सहारे काम चला रहे थे।

सड़क पर चलते हजारों हजारों लोगों को देखते हुए उसने सोचा,”मेरे जैसे भी बहुत होंगे इनमें”, ऊपर वाला अगर पेट भरने के लिए कुछ नहीं देता तो इस दुनिया में क्यों लेके आता है? “मेरे बस में हों तो मैं तो इस दुनिया को छोड़ दूं और फिर ऊपर वाले से पूछूँगा, गरीब की जिंदगी इतनी सस्ती क्यों है? सरकार को भी देखो, अगर कोई गरीब बम्ब विस्फोट में मर जाए तो जीवन की कीमत है एक लाख। अरे इस से ज्यादा तो एक बाबू रिश्वत दे देता है सौ रुपये की रिश्वत लेते पकडे जाने पर। मेरी जिंदगी की कोई कीमत नहीं है।”

तभी एक मोड़ पर एक धमाका हुआ और मानव की जीवन लीला समाप्त हो गयी। एक घंटे में घोषणा हुई, सरकार मृत लोगों को एक लाख और घायलों को पच्चीस हजार मुआवजा दे रही है। धमाके की जांच होगी और दोषियों को बक्शा नहीं जाएगा। -रविन्द्र सिंह/17 अगस्त 2012.

पश्चाताप

शहर में चारों और दंगे हो रहे थे और तबाही मची थी, तभी एक छोटी सी कुटिया के पास आकर भीड़ रुकी. मुस्लिम लोगों की भीड़ थी वह; उस भीड़ ने आवाज लगाईं, “जो कोई भी है बाहर निकले, अपना मजहब बताये वरना हम कुटिया को जला देंगे”. एक अधेड़ उम्र की बुढ़िया बाहर आई, एक प्रश्न चिह्न लगाते हुए भीड़ के नेता की तरफ देखा,”क्यों रे, तू तो वही है जो  यहाँ कपडे सिलवाने आता था, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है.”

युवक:,” तू ये बता तेरा मजहब क्या है, वरना हम जला देंगे.”
बुढ़िया::” मेरा सवाल अब भी अधूरा है, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है.”
युवक:” तू ऐसे नहीं मानेगी, तेरा इलाज करना पड़ेगा.”
बुढ़िया:”मैं अन्दर सोमवार की पूजा कर रही थी, अब तुने जो समझना है समझ ले.”
युवक:” जला दो, इस झोंपड़ी को, मार दो बुढ़िया को.”
और उस बुढ़िया को भीड़ ने मार दिया..भीड़ अन्दर घुसी, अन्दर एक चिट्ठी रखी थी. उस चिट्ठी में लिखा था,” मेरे बेटो, मेरा अल्लाह जानता है, कि मैंने सदा ऊपर वाले के ऊपर विश्वास किया है और उसकी सच्ची इबादत की है. मैं चाहती तो बता सकती थी कि मैं मुसलमान हूँ पर आज मुझे बड़ा दुःख है कि मेरी जैसी माओं ने तुम जैसे बच्चों को जन्म दिया है. इस बात का पश्चाताप करने के लिए मैं अल्लाह-ताला के पास जा रही हूँ. खुदा तुम्हें इबादत सिखाये और बस इतना करे कि तुम जैसे बच्चे मेरे जैसी माओं की कोख से पैदा न हों ..खुदा हाफ़िज़”
भीड़ अवाक एक दूसरे को देखती रही, फिर सन्नाटा पसर गया..
-रविन्द्र सिंह/१६ अगस्त २०१२

आजादी की छुट्टी।

आजादी की छुट्टी पर एक छोटा बच्चा अपनी माँ से पूछ बैठा, “माँ, ये छुट्टी क्यों होती है” माँ परेशान रहती हुई कोई जवाब न दे पायी. इतने में बच्चे ने फिर से पूछा, “माँ जवाब क्यों नहीं देती?” माँ ने सोचा फिर जवाब दिया,”बेटा क्योंकि आज के दिन हमें गुलामी से आजादी मिली थी, इस से पहले हमारे लोग अपनी मर्जी से इस देश में घूम नहीं पाते थे, खा नहीं पाते थे, पढ़ नहीं पाते थे. सरकार विरोध करने वालों को बड़ी सजा देती थी, कभी भी लोगों को बेवजह जेल में डाल देती थी. आजाद होने की ख़ुशी में सरकार हर साल छुट्टी करती है.” 
बेटे ने कहा,” तो माँ अभी भी तो पास वाले अंकल को पुलिस ऐसे ही उठा ले गयी और मेरा दोस्त बता रहा था कि उसको पीटती भी है…बताओ माँ बताओ फिर क्यों छुट्टी होती है.”
माँ एक टक आसमान में देखती रही और वह अपने दोस्तों के साथ खेलने चला गया.-रविन्द्र सिंह/15 अगस्त 2012

एक बेरोजगार

इस किनारे चलते हुए चुन्नी  लाल  ने  बहती नदिया के पार देखा. इस किनारे बड़े बंगले थे, बड़े बाजार थे, उन बाजारों में केवल कुछ हजार लोग थे। वे लोग ऐसे थे जो चलते थे, उड़ते थे, कभी कभी तो कर्म ऐसा करते थे, जिन कर्मों में कोई धर्म नहीं, जिन आदमियों में कोई सच्चा कर्म नहीं,पर उनका उड़ना कभी कम नहीं हुआ, उनका चलना कभी कम नहीं हुआ. इतने में चुन्नी लाल ने नदिया के उस पार देखा। उस पार कुछ भूखे नंगे लोग चल रहे थे, हाथ में सूखी रोटी थामे, गले में पानी के अरमान पाले, न बंगले दिखे, न बाजार दिखे, पर उसे भूखे आदमी कई हजार दिखे,सभी और प्रश्न थे और सभी इस पार देख रहे थे. उस पार लोग इस पार आने का रास्ता ढूंढ रहे थे। बीच में एक छोटा सा कमजोर पुल बन रहा था, पुल ऐसा कि दोनों किनारों को जोड़ता नहीं था, पर काम उसका पुलिया का ही था। इस पार लोग उस पार के लोगों के बारे में भाषण दे रहे थे, उनके लिए काम करने का दावा कर रहे थे।

व्यथित चुन्नी लाल आगे चल पड़े, आगे चला तो दोनों का नाम दिखा,नदिया का नाम “लोकतंत्र” और पुलिया का नाम “सरकार” था। तभी दोनों छोर कभी मिलते नहीं थे, इस पार के लोग कभी उस पार जाते नहीं थे, उस पार के लोगों को पुलिया इस पार आने नहीं देती थी। नदिया के ये दोनों छोर  न कभी मिले थे, और न कभी मिलेंगे।-रविन्द्र  सिंह/ 15 अगस्त 2012.