ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल

दुष्यंत कुमार की पुस्तक “साए में धूप ” एक अपाहिज समाज की व्यथा है जो भारत के आजाद होने के बाद इसके नेताओं ने इसे बना दिया है। एक ग़ज़ल नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ कृपया ध्यान से पढ़ें और सोचें:

ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगो
कि जैसे जल में झलकता हुआ महल, लोगो

-देखिये यहाँ पर दुष्यंत जी खोखले समाज की खोखली तरक्की पर करारा प्रहार कर रहे हैं और कह रहे हैं कि जो तरक्की की रौशनी भारतवर्ष में व्याप्त है ; वह एक धोखा है और जल में झलकते हुए महल की तरह है जो दीखता तो है पर असल में होता नहीं है और उसे महसूस भी नहीं कर सकते हैं। भारत वर्ष में गरीबी और भुखमरी आज भी व्याप्त है तो भारत के तरक्की करने का सवाल ही नहीं होता। जब तक निम्नतम वर्ग का नागरिक इस तरक्की का भागीदार न हो तब तक यह एक छल मात्र है।

दरख़्त हैं तो परिन्दे नज़र नहीं आते
जो मुस्तहक़ हैं वही हक़ से बेदख़ल, लोगो

-पेड़ हैं तो उस पर परिंदे नहीं नजर आते, जो हकदार हैं वही हैं हक़ से बेदखल। दुष्यंत जी की व्यथा यहाँ और भी गंभीर हो जाती है और वे सीधे सीधे कहते हैं कि जिन परिंदों का दरख़्त कभी घर हुआ करता था; वे परिंदे अब नजर नहीं आते और जो हकदार हैं उन्हें हक़ से वंचित होना पद रहा है। किसान को और मजदूर को ले लीजिये।  किसान जो समूचे राष्ट्र को अन्न पैदा करके देता है; वह भूखा सोता है और मजदूर जिसकी मेहनत से एक इमारत खड़ी होती है वह बिना छत के सोता है। तरक्की यहाँ बेमानी है।

वो घर में मेज़ पे कोहनी टिकाये बैठी है
थमी हुई है वहीं उम्र आजकल ,लोगो

किसी भी क़ौम की तारीख़ के उजाले में
तुम्हारे दिन हैं किसी रात की नकल ,लोगो

देखिये यहाँ दुष्यंत जी की व्यथा, वे कह रहे हैं कि आपकी तरक्की तो किसी की तरक्की की नक़ल मात्र है।

तमाम रात रहा महव-ए-ख़्वाब दीवाना
किसी की नींद में पड़ता रहा ख़लल, लोगो

-कोई तो तमाम रात स्वप्न में खोया रहा और कोई अपनी बेकारी के कारण सो ही नहीं पाया। हमारी तरक्की की मिसाल एक पूरी तरह से असमान समाज की संरचना है। जहाँ अमीर और अमीर हो रहा है वहीँ गरीब और गरीब हो रहा है। भारतवर्ष में व्याप्त यह सामाजिक ताना बाना कहीं से भी तरक्की की मिसाल कायम नहीं करता। 

ज़रूर वो भी किसी रास्ते से गुज़रे हैं
हर आदमी मुझे लगता है हम शकल, लोगो

दिखे जो पाँव के ताज़ा निशान सहरा में
तो याद आए हैं तालाब के कँवल, लोगो

वे कह रहे हैं ग़ज़लगो नहीं रहे शायर
मैं सुन रहा हूँ हर इक सिम्त से ग़ज़ल, लोगो।

-इन महान रचनाओं में भारत के समाज की सही रचना सामने आती है जो इस भारत से बिलकुल परे है जो सरकारें या मीडिया सच में हम सबको दिखाते हैं। 

“क्या जय महाराष्ट्र सही है”

यही कोई पंद्रह वर्ष पहले दूरदर्शन पर एक सीरियल आता था “चाणक्य” नाम से . देश प्रेम के वाक्यों से लबालब यह सीरियल सही मायने में एक महान रचना थी। उस सीरियल के एक एपिसोड में चाणक्य कहते हैं,

“यवनों ने भिन्न-भिन्न जनपदों के आस्था के भेद को नहीं देखा था. आक्रान्ताओं ने सभी के साथ एक जैसा व्यवहार किया था.  दुर्भाग्य ही था की सभी जनपदों ने मिलकर यवनों का सम्मिलित रूप से प्रतिकार नहीं किया.  क्यों??  क्योंकि हममे राष्ट्रीय चरित्र का अभाव था. यदि सभी जनपदों ने राष्ट्र के रूप में संगठित होकर यवनों का प्रतिकार किया होता तो क्या यवनों के लिए इस धरा पर विजय पाना संभव था? यदि सिन्धु की रक्षा का दायित्व सभी जनपदों के लिया होता तो क्या यवनों को सिन्धु को पार कर पाना संभव था? पर कठ, मद्रक, क्षुद्रक और मालव गणराज्यों को ये विश्वास नहीं हो रहा था की उनके प्रदेशों की सीमाओं का द्वार भी तक्षशिला हैं. जहाँ तक हमारी संस्कृति का विस्तार हैं, वहां तक हमारी सीमाए हैं.  हिमालय से समुद्र पर्यंत ये संपूर्ण भूमि हमारी अपनी भूमि हैं, हमारा अपना राष्ट्र हैं. और इस राष्ट्र की रक्षा हम नहीं करेंगे तो इस राष्ट्र की रक्षा कौन करेगा.   यदि हमने अबभी संगठित होकर राष्ट्र के रूप में अपना परिचय नहीं दिया तो आक्रान्ताओं का पुनरागमन हो सकता हैं और इतिहास की पुनरावृत्ति. यदि हम अबभी संगठित नहीं हुए तो आक्रान्ताओं का मार्ग प्रशस्त हैं. आवश्यकता हैं हमें एक छत्र के नीचे एकत्र होने की. ताकि ये राष्ट्र सुदृढ़ और सक्षम हो, शक्तिशाली हो, गौरवशाली हो, और हम अमृत के अमर्त्य पुत्र कह सकें की प्रशस्त पुण्य-पंथ हैं, बढे चलो बढे चलो..”

आज कल राज ठाकरे राष्ट्रीय चेन्नलों पर अपने एक घटिया से बयान के कारण छाए हुए हैं। अपने बुजुर्ग बाल ठाकरे के नक़्शे कदम पर चलते हुए राज ठाकरे मराठी मानुष, जय महाराष्ट्र का नारा कई वर्षों से बुलंद किये हुए हैं और कांग्रेस की सरकार जानकार उनपर कार्यवाही नहीं कर रही। राज ठाकरे के बढ़ने पर शिव सेना का सीधा नुक्सान होगा और कांग्रेस का फायदा। तो कोई भी उन्हें रोकने की कोशिश नहीं कर रहा और वे लगातार बदजुबानी कर रहे हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज ने औरंगजेब के समय पर “स्वराज” की स्थापना की थी। उसकी खासियत थी कि  उन्होंने विदेशी तरीकों की जगह देशी तरीकों को तवज्जो दी थी। उनके राज्य को आक्रान्ताओं से मुक्ति दी थी। ठाकरे परिवार अपना आदर्श छत्रपति को घोषित करते हैं और सीधे सीधे ऐसा करके छत्रपति का अपमान करते हैं। छत्रपति की राजनीति का अध्ययन यदि किया जाए तो आप पायेंगे कि  वे हमेशा राष्ट्र प्रेम को तवज्जो देते थे। इसी कारण वे अपने राज्य का विस्तार करते हुए भी अन्याय से दूर रहे। यहाँ तक कि  उन्होंने अपने पुत्र को भी नहीं बक्शा। इसके उलट आजकल के ये तथाकथित नेता मराठी अस्मिता के नाम पर राष्ट्र की अस्मिता का हरण कर रहे हैं। उनके इस कदम का क्या नुक्सान हो सकता है वह ऊपर दिए चाणक्य के वाक्यों में स्पष्ट देखा जा सकता है।

संगठन ही जीवन है और संगठित रह कर ही हम महान राष्ट्र के रूप में अपना विकास कर सकते हैं। राज ठाकरे शायद यह भूल रहे हैं कि  मुंबई को अंग्रेजों ने बसाया था और एक मछुआरों के गाँव को इतना विशाल रूप यहाँ बसे विभिन्न सम्प्रदायों के लोगों ने दिया क्या मुंबई की कल्पना राजस्थान से आये “बिड़ला ” या गुजरात से आये “टाटा” के बिना की जा सकती है। क्या मराठी मानुष बिहार के विस्थापितों के म्हणत काश जीवन का मुकाबला कर पायेंगे। क्या मराठी मानुष का ढोल पीट रहे मनसे के कार्यकर्ता ईंट, पत्थर को उठाकर वहां इमारतें बनाएँगे, या रिक्शा चलाएंगे? यदि नहीं तो बिहार के बिना महाराष्ट्र कहाँ से संभव है। ऐसा नहीं कि  बिहार के केवल मजदूर ही वहां हैं, अपितु वहां पर बिहार के अफसर और बड़े व्यापारी भी हैं। ये सब उस संस्कृति का हिस्सा है जो गर्व से समूचे भारत में सबसे अनूठी संस्कृति होने का सही दंभ भारती है। भारत का संविधान भारत के किसी भी नागरिक को भारत के किसी भी हिस्से में जाकर व्यापार करने की, वहां बसने की आगया देता है। एक घटिया सी पार्टी संविधान से कभी भी ऊपर नहीं हो सकती। यह समझना अति आवश्यक है। इसे केवल बिहार और महाराष्ट्र की समस्या समझकर दरकिनार करने वाले समूचे भारत वासियों को मैं कहना चाहूँगा कि  इनके परिवार का कोई आदमी फिर से झंडा उठा कर क्या पता किसी दिन हरियाणा पंजाब के लोगों को निकालने निकल पड़े इसका मूंह तोड़ जवाब देना जरूरी है। जरूरत है ठाकरे परिवार को जेल के अन्दर दाल दिया जाए ताकि भारत एक रह पाए। इस देश में केवल “जय हिंद” का नारा ही बुलंद रहना चाहिए न की “जय महाराष्ट” या कुछ और। कोई भी राज्य, कोई भी धर्म कोई भी जाति  राष्ट्र से ऊपर नहीं हो सकती। हमारी अनूठी सांस्कृतिक विविधता का ख्याल केवल हम ही रख पायेंगे कोई और नहीं। ठाकरे परिवार का सामाजिक बहिष्कार करना जरूरी है। -रविद्र

एक बेरोजगार

आज मानव सड़क पर चला जा रहा था। उसके मन में कई तरह की गुत्थियां चल रही थीं।नौकरी मिल नहीं रही थी, ऊपर से माँ उसकी चिंता में मरी जा रही थी। मानव के तीन भाइयों में वह ही ऐसा था जिसके पास नौकरी नहीं थी, इसलिए उसे घर में कोई बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती थी। पिता जी कुछ चाय बनाने की दुकान  के सहारे काम चला रहे थे।

सड़क पर चलते हजारों हजारों लोगों को देखते हुए उसने सोचा,”मेरे जैसे भी बहुत होंगे इनमें”, ऊपर वाला अगर पेट भरने के लिए कुछ नहीं देता तो इस दुनिया में क्यों लेके आता है? “मेरे बस में हों तो मैं तो इस दुनिया को छोड़ दूं और फिर ऊपर वाले से पूछूँगा, गरीब की जिंदगी इतनी सस्ती क्यों है? सरकार को भी देखो, अगर कोई गरीब बम्ब विस्फोट में मर जाए तो जीवन की कीमत है एक लाख। अरे इस से ज्यादा तो एक बाबू रिश्वत दे देता है सौ रुपये की रिश्वत लेते पकडे जाने पर। मेरी जिंदगी की कोई कीमत नहीं है।”

तभी एक मोड़ पर एक धमाका हुआ और मानव की जीवन लीला समाप्त हो गयी। एक घंटे में घोषणा हुई, सरकार मृत लोगों को एक लाख और घायलों को पच्चीस हजार मुआवजा दे रही है। धमाके की जांच होगी और दोषियों को बक्शा नहीं जाएगा। -रविन्द्र सिंह/17 अगस्त 2012.

पश्चाताप

शहर में चारों और दंगे हो रहे थे और तबाही मची थी, तभी एक छोटी सी कुटिया के पास आकर भीड़ रुकी. मुस्लिम लोगों की भीड़ थी वह; उस भीड़ ने आवाज लगाईं, “जो कोई भी है बाहर निकले, अपना मजहब बताये वरना हम कुटिया को जला देंगे”. एक अधेड़ उम्र की बुढ़िया बाहर आई, एक प्रश्न चिह्न लगाते हुए भीड़ के नेता की तरफ देखा,”क्यों रे, तू तो वही है जो  यहाँ कपडे सिलवाने आता था, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है.”

युवक:,” तू ये बता तेरा मजहब क्या है, वरना हम जला देंगे.”
बुढ़िया::” मेरा सवाल अब भी अधूरा है, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है.”
युवक:” तू ऐसे नहीं मानेगी, तेरा इलाज करना पड़ेगा.”
बुढ़िया:”मैं अन्दर सोमवार की पूजा कर रही थी, अब तुने जो समझना है समझ ले.”
युवक:” जला दो, इस झोंपड़ी को, मार दो बुढ़िया को.”
और उस बुढ़िया को भीड़ ने मार दिया..भीड़ अन्दर घुसी, अन्दर एक चिट्ठी रखी थी. उस चिट्ठी में लिखा था,” मेरे बेटो, मेरा अल्लाह जानता है, कि मैंने सदा ऊपर वाले के ऊपर विश्वास किया है और उसकी सच्ची इबादत की है. मैं चाहती तो बता सकती थी कि मैं मुसलमान हूँ पर आज मुझे बड़ा दुःख है कि मेरी जैसी माओं ने तुम जैसे बच्चों को जन्म दिया है. इस बात का पश्चाताप करने के लिए मैं अल्लाह-ताला के पास जा रही हूँ. खुदा तुम्हें इबादत सिखाये और बस इतना करे कि तुम जैसे बच्चे मेरे जैसी माओं की कोख से पैदा न हों ..खुदा हाफ़िज़”
भीड़ अवाक एक दूसरे को देखती रही, फिर सन्नाटा पसर गया..
-रविन्द्र सिंह/१६ अगस्त २०१२

आजादी की छुट्टी।

आजादी की छुट्टी पर एक छोटा बच्चा अपनी माँ से पूछ बैठा, “माँ, ये छुट्टी क्यों होती है” माँ परेशान रहती हुई कोई जवाब न दे पायी. इतने में बच्चे ने फिर से पूछा, “माँ जवाब क्यों नहीं देती?” माँ ने सोचा फिर जवाब दिया,”बेटा क्योंकि आज के दिन हमें गुलामी से आजादी मिली थी, इस से पहले हमारे लोग अपनी मर्जी से इस देश में घूम नहीं पाते थे, खा नहीं पाते थे, पढ़ नहीं पाते थे. सरकार विरोध करने वालों को बड़ी सजा देती थी, कभी भी लोगों को बेवजह जेल में डाल देती थी. आजाद होने की ख़ुशी में सरकार हर साल छुट्टी करती है.” 
बेटे ने कहा,” तो माँ अभी भी तो पास वाले अंकल को पुलिस ऐसे ही उठा ले गयी और मेरा दोस्त बता रहा था कि उसको पीटती भी है…बताओ माँ बताओ फिर क्यों छुट्टी होती है.”
माँ एक टक आसमान में देखती रही और वह अपने दोस्तों के साथ खेलने चला गया.-रविन्द्र सिंह/15 अगस्त 2012

एक बेरोजगार

इस किनारे चलते हुए चुन्नी  लाल  ने  बहती नदिया के पार देखा. इस किनारे बड़े बंगले थे, बड़े बाजार थे, उन बाजारों में केवल कुछ हजार लोग थे। वे लोग ऐसे थे जो चलते थे, उड़ते थे, कभी कभी तो कर्म ऐसा करते थे, जिन कर्मों में कोई धर्म नहीं, जिन आदमियों में कोई सच्चा कर्म नहीं,पर उनका उड़ना कभी कम नहीं हुआ, उनका चलना कभी कम नहीं हुआ. इतने में चुन्नी लाल ने नदिया के उस पार देखा। उस पार कुछ भूखे नंगे लोग चल रहे थे, हाथ में सूखी रोटी थामे, गले में पानी के अरमान पाले, न बंगले दिखे, न बाजार दिखे, पर उसे भूखे आदमी कई हजार दिखे,सभी और प्रश्न थे और सभी इस पार देख रहे थे. उस पार लोग इस पार आने का रास्ता ढूंढ रहे थे। बीच में एक छोटा सा कमजोर पुल बन रहा था, पुल ऐसा कि दोनों किनारों को जोड़ता नहीं था, पर काम उसका पुलिया का ही था। इस पार लोग उस पार के लोगों के बारे में भाषण दे रहे थे, उनके लिए काम करने का दावा कर रहे थे।

व्यथित चुन्नी लाल आगे चल पड़े, आगे चला तो दोनों का नाम दिखा,नदिया का नाम “लोकतंत्र” और पुलिया का नाम “सरकार” था। तभी दोनों छोर कभी मिलते नहीं थे, इस पार के लोग कभी उस पार जाते नहीं थे, उस पार के लोगों को पुलिया इस पार आने नहीं देती थी। नदिया के ये दोनों छोर  न कभी मिले थे, और न कभी मिलेंगे।-रविन्द्र  सिंह/ 15 अगस्त 2012.

भारत की आद्र्भूमियाँ(WETLANDS) और भारत सरकार की विफलता

2010 में जब भारत सरकार ने आद्र्भूमियों के संरक्षण और प्रबंधन के लिए नियम बनाए थे तो सबको आशा थी के जयराम रमेश के पर्यावरण मंत्री होने के नाते शायद सरकार कोई ठोस कदम उठाए, पर यह कानून भी अन्य कानूनों की तरह बिना धार की तलवार बना दिया गया. पूरे विरोध के बावजूद भी इसे 2011 में सरकार ने अधिसूचित कर दिया. २ फरवरी को विश्व आद्र्भूमि दिवस पर शायद ही किसी मीडिया हाउस ने या सरकारी संस्थान ने कोई सार्थक प्रयास किया हो. यहाँ हम यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि कानून बनाने में क्या भूल हुई और क्या खतरे हैं भारत की आद्र्भूमियों को.
नदियों, जलाशय एवं जमीनी पानी की तरह ही आद्र्भूमि भी जलीय चक्र का एक बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. ये न केवल जमीनी पानी को रिचार्ज करने के काम आती हैं, अपितु जैविक विविधता, जल स्वच्छीकरण, पक्षियों के लिए आराम करने की जगह, जलवायु नियंत्रण आदि कई महत्वपूर्ण कार्य करती हैं. इनकी प्रयावरण की महत्ता को देखते हुए, विश्व समुदाय ने मिलकर 1971 में रामसर अभिसमय(Convention) में इन्हें संरक्षित करने का संकल्प किया था एवं ऐसी आद्र्भूमियों को चिह्नित करने का बीड़ा उठाया था जो अंतर्राष्ट्रीय महत्ता रखती हैं. भारत में ऐसी आद्र्भूमियों की संख्या 25 है जो रामसर अभिसमय के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय आद्र्भूमि हैं.
इनकी महत्ता को देखते हुए केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय आद्र्भूमि संरक्षण प्रोग्राम भी 1985-86 में घोषित किया था, पर वह भी आशाओं के अनुरूप कार्य नहीं कर पाया.
इन नियमों की सबसे बड़ी कमी यह है कि आद्र्भूमियों के संरक्षण का सारा जिम्मा केंद्र एवं राज्य सरकार के पास है. लगभग सभी आद्र्भूमि; चाहे वे मानव निर्मित हों या प्राकृतिक ; अपने आस पास एक बड़े समाज का भरण पोषण करती हैं. इनमें मछली पकड़ने वाले, खेती करने वाले एवं अन्य छोटे मोटे कार्य करने वाले असंख्य लोग हैं. भारत के कानून में इन लोगों को कोई स्थान नहीं दिया गया है. हालांकि नियम ये सब गतिविधियाँ सरकार के नियंत्रण में चलाने की अनुमति देते हैं परन्तु इन लोगों की सलाह और इन लोगों के मेलजोल के बिना आद्र्भूमियों का संरक्षण हो पायेगा यह मुश्किल लगता है.
दूसरी महत्त्व पूर्ण कमियाँ इन नियमों में यह हैं कि लोकल मशीनरी जैसे पंचायत, जिला परिषद् को कोई भी रोल नहीं दिया गया है. इनके पूरे सहयोग के बिना, एवं सलाह के बिना आद्र्भूमि संरक्षण संभव हो पायेगा यह मुश्किल है. लोकल मशीनरी न केवल एक महत्त्वपूर्ण रोल अदा कर सकती हैं बल्कि इनकी सहायता से आद्र्भूमि के आस पास रहने वाले जन-मानस को भी शिक्षित किया जा सकता है. यह एक सत्य है कि कानून बनाना कभी भी किसी समस्या का हल नहीं कर पाया है, इसका हल केवल शिक्षा से हो सकता है. जब तक आस पास के लोग इसे समझेंगे नहीं कि आद्र्भूमि महत्वपूर्ण क्यों है, इनका संरक्षण करना संभव कैसे हो पायेगा. यहाँ यह कहना महत्वपूर्ण होगा कि पिछले दस पन्द्रह सालों में भारत अपनी 38% आद्र्भूमियों के एरिया को खो चुका है और इसके विभिन्न कारण हैं. यदि अब भी शिक्षित नहीं किया गया समाज को तो बहुत देर हो जायेगी.
अगली कमियां इन नियमों में यह है कि नियमों में एक वर्ष के भीतर भीतर आद्र्भूमियों की सफाई का एक असंभव कार्य करने का बीड़ा उठाया गया है पर यह कहीं भी लक्षित नहीं है कि यह कैसे होगा और इसके लिए क्या क्या क्रिया-कलाप किये जायेंगे. जो कार्य भारत में पिछले साठ वर्षों में नहीं हो पाया, वह एक वर्ष में हो जाएगा यह असंभव  लगता है.
विभिन्न कमियों में से एक कमी यह भी है कि आद्र्भूमि को नुकसान पंहुचाने वाली गति-विधियों को करने वालों को कितनी सजा मिलेगी. क्या यह आवश्यक नहीं था कि एक कठोर सजा का प्रावधान किया जाता, जबकि समस्त भारत में शिकारी, जल प्रदूषण, गैर कानूनी मछली पकड़ने वाले आद्र्भूमियों को एक ऐसा नुक्सान पंहुचा रहे हैं जो कभी भी ठीक नहीं हो पायेगा. अब ज़रा देखिये, कि सरकार की अनुमति से कोई भी गतिविधि की जा सकती है आद्र्भूमियों में; ज़रा सोचिये कि इसका आद्र्भूमि को फायदा होगा या नुक्सान. अच्छे प्रयावरण को संविधान का एक मौलिक अधिकार माना गया है (देखिये चमेली सिंह बनाम उत्तर प्रदेश सरकार, 1996 सुप्रीम कोर्ट).
आद्र्भूमियों को चिह्नित करने का तरीका भी गलत है. मुख्य नदी धारा को आद्र्भूमि नहीं माना गया है. अधिकतर आद्र्भूमि किसी न किसी जलधारा से ही निर्मित होती हैं. जब तक जलधारा में प्रदूषण एवं अन्य गैरकानूनी गतिविधियों को रोका नहीं जाएगा,तब तक आद्र्भूमि संरक्षित हो जायेंगी यह संदिग्ध है. हरियाणा की एक महत्वपूर्ण आद्र्भूमि है सुल्तान्पुर(गुडगाँव); यह मुख्य रूप से यमुना से आये जल से निर्मित है. यमुना के प्रदूषण ने इस पर इतना गहरा प्रभाव डाला है कि इसका जल काला हो गया है. यही हाल पंजाब की हरिके आद्र्भूमि का है जहां सतलुज और रावी का प्रदूषण एक कठिन परिस्थिति उत्पन्न कर रहा है.
हमें सोचना चाहिए और समझना भी चाहिए कि आद्र्भूमि प्रयावरण संरक्षण के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण हैं. न केवल सूखे के समय, बल्कि हर मुश्किल परिस्थिति में प्रयावरण के संतुलन को बनाए रखने में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है. पर सरकारें कुछ नहीं कर रही हैं और सभी प्रकार की गैर कानूनी गतिविधियाँ जैसे मछली पकड़ना, शिकार, खनन, जल प्रदूषण यहाँ पर धड़ल्ले से चल रहा है. यदि हम आज भी न संभलें तो बहुत देर हो जायेगी और नुक्सान ऐसा होगा जिसकी भरपाई आने वाली सदियाँ भी नहीं कर पाएंगी.

भारतीय भाषाओँ का विनाश और इंग्लिश

लार्ड मैकाले ने भारत में ब्रिटिश शिक्षा पद्दति को जब सख्ती से लागू किया था तो उसने ब्रिटिश सरकार को यह विश्वास दिलवाया था कि भारत में अंग्रेजी और अंग्रेजियत का प्रचार एवं प्रसार यदि किया गया तो भारत की संस्कृति धीरे धीरे समाप्त हो जाएगी और भारत की आने वाली पीढियां एक ऐसे समय में पैदा होंगी जब वे सिर्फ अंग्रेजी में सोचेंगे, अंग्रेजी में पढेंगे और अंततः यदि ब्रिटिश वहां न भी रहे तो भी सांस्कृतिक रूप से भारत हमेशा के लिए ब्रिटेन का गुलाम हो जाएगा. इस ही नीति के तहत उस समय प्रचलित हिन्दुस्तानी, उर्दू और हिंदी जैसी प्रमुख भाषाओं की जगह शिक्षा के लिए अंग्रेजी का प्रयोग किया गया. तीस चालीस साल आते आते भारत में एक ऐसी जमात तैयार हो गयी जो हिंदी और हिन्दुस्तानी को अपनी शान के खिलाफ और संस्कृत को मृत भाषा मानती थी. जब भारत आजाद हुआ तो संविधान निर्माताओं के ऊपर नया संकट पैदा हुआ, उन्हें यह तय करना था के भारत की राष्ट्रीय भाषा क्या होगी. महात्मा गाँधी के शब्दों में,” जो सभ्यता अपनी पृथकता और भाषा को त्याग देगी वह मृतप्राय हो जायेगी“. एक लम्बी चौड़ी बहस के बाद यह तय किया गया कि भारत वर्ष की मुख्य भाषाओं को संविधान में मान्यता दी जायेगी. अंग्रेजी को शासकीय भाषा के रूप में प्रयोग किया जाएगा और 1965 तक उसे भारत से चलता कर दिया जाएगा. पर इस सन तक आते आते भारत कई हिंदी विरोधी दंगों से गुजरा जिनमें से मुख्य दंगे मद्रास में हुए जहां पर लगभग अस्सी विद्यार्थियों ने स्वयं को आग लगा कर मृत्यु के हवाले कर दिया. इन सब का कहना था कि हिंदी नहीं उनकी अपनी भाषा राष्ट्रीय भाषा बने. अतः एक संविधानिक संशोधन लाकर १९६५ को वैकल्पिक साल बना दिया गया. पर हिंदी और अन्य भाषाओं को बचाने के लिए इच्छा शक्ति तब तक समाप्त हो गयी थी क्योंकि एक पूरी पीढ़ी तैयार हो चुकी थी जो अंग्रेजी को अपने जीवन का अभिन्न अंग एवं अन्य भाषाओं को सौतेला समझती थी. विश्व की सबसे समृद्ध सांस्कृतिक विरासत एवं सबसे महान भाषा संस्कृत की जननी इस भारत भूमि पर उसकी अपनी भाषाएँ बेगानी हो गयी. एक कवि की हिंदी की उपेक्षा पर एक दर्दनांक कविता से समझें तो ,“खाट पर पसरी हुई मेहमान अंग्रेजी के साथ, अपने घर में हिंदी की लाचारगी को सोचना” . इस ही दुर्दशा को देख कर भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी कहा था
,”निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।

अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन, पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।।

पर न तो अंग्रेजी रुकी और न ही भारतीय भाषाओं का मान मर्दन रुका. क्या आप जानते हैं कि 1961 की जनगणना में 1652 मातृभाषाओं की सूची बनी थी. जो 1971 में घटकर 109 रह गई. 1971 की जनगणना में जिन भाषाओं को बोलने वाले दस हजार से कम लोग थे, सरकार ने उन्हें गिनना भी मुनासिब नहीं समझा और ऐसी सभी भाषा या बोलियों को ‘अन्य’ की एक श्रेणी में डाल दिया. फिर एक के बाद एक भाषा या बोलियां खत्म होती रहीं, लेकिन किसे परवाह है? आज की पीढ़ी हिंदी को इंग्लिश में, इंग्लिश को अन्य भाषाओँ में मिलाती है. क्या आपको नहीं लगता कि जंगल बचाओ आन्दोलन, शेर बचाओ आन्दोलन की तरह भारत वर्ष में भाषा बचाओ आन्दोलन की सख्त आवश्यकता है. यदि प्रयास नहीं किये गए तो भारत की भाषाएँ विनष्ट हो जायेंगी. पर यहाँ सुनने को कौन बैठा है? हमारी पीढ़ी में कितने लोगों को अपनी मातृभाषा में एक से सौ तक की गिनती आती है? पर अंग्रेजी पोएम अवश्य आती होंगी!
इस व्यथा ने अंतरात्मा को झझकोर दिया है और समझ नहीं आ रहा है कि क्या बोलूं. इतना कर सकता हूँ कि कम से कम मेरे जीवन में हिंदी और भारतीय भाषाएँ हमेशा सर्वोपरि रहेंगी.

क्रांति का अर्थ

क्रांति का अर्थ:
क्रांति का आज कल हर जगह मजाक उड़ाया जा रहा है.कभी ये आन्दोलन तो कभी वो आन्दोलन, लगता है जैसे भारतवर्ष में आंदोलनों की बहार आ गयी है.पंद्रह अगस्त क्या आई रामदेव जी ने अगस्त क्रांति का ऐलान कर दिया. कुछ ही दिन बीते थे जब अन्ना हजारे जी एक क्रांति का नेतृत्व कर रहे थे….अब ज़रा जन-मानस को कौन समझाए कि “अगस्त क्रांति” का भारत वर्ष में दूसरा उदाहरण कभी भी पैदा नहीं हो पायेगा. जमीर के बिना क्रांति संभव नहीं है…यदि हमारे विचार पवित्र हैं तो हम अवश्य एक ऐसी क्रांति ला पायेंगे जो समाज को कुछ हद तक बदलने में सहायक हो. पर तब तक हमें प्रयास अवश्य करने होंगे. अब ज़रा क्रांति के नायकों के बारे में बात कर ली जाए. एक बात पूरी तरह से सही है कि क्रांति कभी भी कोई नायक पैदा नहीं कर सकता. इसका उल्टा बिल्कुल सही है, क्रांति हमेशा से नायक पैदा करती रही है…जनता जब व्यवस्था परिवर्तन के लिए उठ खड़ी होती है तो नायक अपने आप मिल जाते हैं. भारत में यह हमेशा एक प्रश्न जनमानस में कोंधता रहता है कि क्या भारत वर्ष को गाँधी जी ने आजादी दिलवाई थी? इसके लिए हमें गाँधी जी को समझना होगा. उन कारणों को समझना होगा जो गाँधी जी को वह बना गए जो वे आज हैं. एक सीधी साधी वकालत करने वाला और सफल बैरिस्टर किस लिए लंगोट पहन कर इतिहास बनाने कूद पडा. इसका उत्तर आपको दक्षिण अफ्रीका में उस समय उठ रहे विद्रोह में मिलेगा जिसका शांति पूर्वक नेतृत्व करके गाँधी जी भारत में एक नायक के रूप में प्रथम विश्वयुद्ध के समय जाने गए. भारत में उसका उत्तर आपको उनके राजनैतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले और उस समय के सैंकड़ों बड़े नेताओं में मिलेगा जिनकी विचारधारा नें गाँधी जी को एक धोती में आने में मजबूर किया. क्या गाँधी जी ने अफ्रीका में विद्रोह पैदा किया या अफ्रीका में विद्रोह से गांधी जी पैदा हुए? क्रान्ति के नायक का उत्तर आपको यहाँ मिलेगा. आज के समय में जनमानस उबल पड़ने का बहाना ढूंढ रहा है. व्यवस्था परिवर्तन के लिए आवाज उठाने वाले हर एक नेता के साथ लाखों लोग खड़े हो जाते हैं. फिर वे नायक घमंड में चूर अपने आपको उस क्रांति का जनक मान लेते हैं जिसको पैदा करने की ताकत एक व्यक्ति में कभी भी नहीं हो सकती. हाँ ये हो सकता है कि वह व्यक्ति अपनी विचार धारा से क्रांति की दिशा को तय कर दे या उस व्यक्ति के द्वारा दिखाए गए रास्ते पर जनमानस को सफलता मिले. जय प्रकाश नारायण के आन्दोलन के समय राष्ट्र कवि दिनकर की कविता”सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” क्रांति के सही स्वरुप को दर्शाती है. आवश्यक नहीं कि मैं अपने विरोध को केवल एक रूप में प्रकट करूँ..किसी भी क्रांति में इतनी ताकत अवश्य होती है कि वह सभी विचारधाओं को समाहित करले. गांधी जी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने भगत सिंह या चन्द्र शेखर आजाद! तो फिर क्रांति का केवल एक नायक कैसे हुआ? अठारह सो सत्तावन के विद्रोह को झांसी वाली रानी कि बहादुरी के लिए याद रखा जाता है, क्या उस क्रांति में मंगल पण्डे, तात्यां टोपे, नाना साहिब या उनके जैसे हजारों नायकों का कोई योगदान नहीं था. उस क्रांति ने वे सब नायक पैदा किये थे.
एक पुराना दोहा है जो क्रांति के नायक को परिभाषित करता है ” शूरा सो पह्चनिए, जो लडे दीन के हेत. पुर्जा पुर्जा कट मरे, कबहूँ ना छाडे खेत “. क्या ऐसा शूरवीर केवल एक या दो होते हैं. क्या भगत सिंह को याद करते हुए हम दुर्गा भाभी को भूल जाते हैं या ग़दर पार्टी के नायक करतार सिंह सराभा को भूल जाते हैं. क्या हम पटेल को समझे बिना गाँधी को समझ पायेंगे. क्या इतिहास इस बात का गवाह नहीं है कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के द्वारा उठाया गया छोटा सा कदम जो शायद भारत को आजाद करवाने में भले ही कारागार न साबित हुआ हो, वह कदम इतना महान था कि नेताजी के नाम पर आज भी हजारों लाखों युवा जीने मरने की कसमें खाते हैं. क्रांति के नायक का केवल एक ही धर्म है कि वह अपने स्वार्थ के लिए नहीं राष्ट्र हित में लड़े फिर चाहे उसे सफलता मिले या असफलता, क्रांति असफल नहीं होती.यही ऊपर के दोहे का सार है. क्या आज के हमारे तथाकथित नायक इस परिभाषा में सटीक बैठते हैं? दिनकर की एक और महान रचना के कुछ शब्द उदृत करना चाहूँगा “चिटकाई जिनमें चिंगारी,जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर-लिए बिना गर्दन का मोल। कलम, आज उनकी जय बोल” ये है क्रांति और ये हैं क्रांति के नायक.
क्रांति कभी असफल नहीं होती, जब तक कि वह अपने अंजाम तक न पंहुच पाए. यदि असफल हुई तो वह क्रांति नहीं हो सकती. रूस के शब्दों में कहें “Long Live Revolution” यानी “इन्कलाब जिंदाबाद”. किसी भी व्यक्ति विशेष से ऊपर राष्ट्रप्रेम से भरपूर क्रांति के अर्थ को छोटा होते देख कर दुःख होता है.
पर क्या भारत सीखेगा? क्या इसके नागरिक सीखेंगे यह बात कि मतभेद होना कभी भी क्रांति को कमजोर नहीं करता अपितु उसे सही दिशा देता है क्योंकि कमी पकड़ में आती है.या क्रांति अभी नहीं आई है, ज़रा सोचिये!
माँ भारती आपके मार्ग को प्रशस्त करे. जय हिंद!

भ्रष्ट देश के भ्रष्ट निवासी, हम सब एक हैं

भ्रष्ट देश के भ्रष्ट निवासी, हम सब एक हैं.
एक देश है, हजारों भाषा,
हजारों जाति और अनेक धर्म.
उबलता है देश सारा, के भारत नहीं है हमारा.
उबलते हैं सभी धर्म, के भारत नहीं है हमारा.

एक धर्म है हमारा, जो रखे देश को एक,
इस देश के भ्रष्ट लोग न पूछे कोई जाति,
बस हाथ फैलाकर करते स्वागत, हो कोई भी धर्म,
हमको पैसा देदो भाई, भले हो आपका कोई भी मर्म.

भारत एक है जब सामने आवे भ्रष्टाचार,
भ्रष्ट देश के भ्रष्ट निवासी एक साथ करें गुणगान,
हमारे सपने को भी कभी मिलेगा आकार,
बने भारत का एक नया ही राष्ट्रगान,
“भ्रष्ट देश के भ्रष्ट निवासी हम सब एक हैं,
कई धर्म हैं कई भाषा, होती हैं कई जाति भी,
एकता और अखंडता को एकजुट रखने में हम सब एक हैं,
जब तक जेब में आते नोट, भारत एक है.
भ्रष्ट देश के भ्रष्ट निवासी हम सब एक हैं.”—-रविन्द्र