शहर में चारों और दंगे हो रहे थे और तबाही मची थी, तभी एक छोटी सी कुटिया के पास आकर भीड़ रुकी. मुस्लिम लोगों की भीड़ थी वह; उस भीड़ ने आवाज लगाईं, “जो कोई भी है बाहर निकले, अपना मजहब बताये वरना हम कुटिया को जला देंगे”. एक अधेड़ उम्र की बुढ़िया बाहर आई, एक प्रश्न चिह्न लगाते हुए भीड़ के नेता की तरफ देखा,”क्यों रे, तू तो वही है जो यहाँ कपडे सिलवाने आता था, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है.”
युवक:,” तू ये बता तेरा मजहब क्या है, वरना हम जला देंगे.”
बुढ़िया::” मेरा सवाल अब भी अधूरा है, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है.”
युवक:” तू ऐसे नहीं मानेगी, तेरा इलाज करना पड़ेगा.”
बुढ़िया:”मैं अन्दर सोमवार की पूजा कर रही थी, अब तुने जो समझना है समझ ले.”
युवक:” जला दो, इस झोंपड़ी को, मार दो बुढ़िया को.”
और उस बुढ़िया को भीड़ ने मार दिया..भीड़ अन्दर घुसी, अन्दर एक चिट्ठी रखी थी. उस चिट्ठी में लिखा था,” मेरे बेटो, मेरा अल्लाह जानता है, कि मैंने सदा ऊपर वाले के ऊपर विश्वास किया है और उसकी सच्ची इबादत की है. मैं चाहती तो बता सकती थी कि मैं मुसलमान हूँ पर आज मुझे बड़ा दुःख है कि मेरी जैसी माओं ने तुम जैसे बच्चों को जन्म दिया है. इस बात का पश्चाताप करने के लिए मैं अल्लाह-ताला के पास जा रही हूँ. खुदा तुम्हें इबादत सिखाये और बस इतना करे कि तुम जैसे बच्चे मेरे जैसी माओं की कोख से पैदा न हों ..खुदा हाफ़िज़”
भीड़ अवाक एक दूसरे को देखती रही, फिर सन्नाटा पसर गया..
-रविन्द्र सिंह/१६ अगस्त २०१२