लार्ड मैकाले ने भारत में ब्रिटिश शिक्षा पद्दति को जब सख्ती से लागू किया था तो उसने ब्रिटिश सरकार को यह विश्वास दिलवाया था कि भारत में अंग्रेजी और अंग्रेजियत का प्रचार एवं प्रसार यदि किया गया तो भारत की संस्कृति धीरे धीरे समाप्त हो जाएगी और भारत की आने वाली पीढियां एक ऐसे समय में पैदा होंगी जब वे सिर्फ अंग्रेजी में सोचेंगे, अंग्रेजी में पढेंगे और अंततः यदि ब्रिटिश वहां न भी रहे तो भी सांस्कृतिक रूप से भारत हमेशा के लिए ब्रिटेन का गुलाम हो जाएगा. इस ही नीति के तहत उस समय प्रचलित हिन्दुस्तानी, उर्दू और हिंदी जैसी प्रमुख भाषाओं की जगह शिक्षा के लिए अंग्रेजी का प्रयोग किया गया. तीस चालीस साल आते आते भारत में एक ऐसी जमात तैयार हो गयी जो हिंदी और हिन्दुस्तानी को अपनी शान के खिलाफ और संस्कृत को मृत भाषा मानती थी. जब भारत आजाद हुआ तो संविधान निर्माताओं के ऊपर नया संकट पैदा हुआ, उन्हें यह तय करना था के भारत की राष्ट्रीय भाषा क्या होगी. महात्मा गाँधी के शब्दों में,” जो सभ्यता अपनी पृथकता और भाषा को त्याग देगी वह मृतप्राय हो जायेगी“. एक लम्बी चौड़ी बहस के बाद यह तय किया गया कि भारत वर्ष की मुख्य भाषाओं को संविधान में मान्यता दी जायेगी. अंग्रेजी को शासकीय भाषा के रूप में प्रयोग किया जाएगा और 1965 तक उसे भारत से चलता कर दिया जाएगा. पर इस सन तक आते आते भारत कई हिंदी विरोधी दंगों से गुजरा जिनमें से मुख्य दंगे मद्रास में हुए जहां पर लगभग अस्सी विद्यार्थियों ने स्वयं को आग लगा कर मृत्यु के हवाले कर दिया. इन सब का कहना था कि हिंदी नहीं उनकी अपनी भाषा राष्ट्रीय भाषा बने. अतः एक संविधानिक संशोधन लाकर १९६५ को वैकल्पिक साल बना दिया गया. पर हिंदी और अन्य भाषाओं को बचाने के लिए इच्छा शक्ति तब तक समाप्त हो गयी थी क्योंकि एक पूरी पीढ़ी तैयार हो चुकी थी जो अंग्रेजी को अपने जीवन का अभिन्न अंग एवं अन्य भाषाओं को सौतेला समझती थी. विश्व की सबसे समृद्ध सांस्कृतिक विरासत एवं सबसे महान भाषा संस्कृत की जननी इस भारत भूमि पर उसकी अपनी भाषाएँ बेगानी हो गयी. एक कवि की हिंदी की उपेक्षा पर एक दर्दनांक कविता से समझें तो ,“खाट पर पसरी हुई मेहमान अंग्रेजी के साथ, अपने घर में हिंदी की लाचारगी को सोचना” . इस ही दुर्दशा को देख कर भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी कहा था
,”निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन, पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।।
पर न तो अंग्रेजी रुकी और न ही भारतीय भाषाओं का मान मर्दन रुका. क्या आप जानते हैं कि 1961 की जनगणना में 1652 मातृभाषाओं की सूची बनी थी. जो 1971 में घटकर 109 रह गई. 1971 की जनगणना में जिन भाषाओं को बोलने वाले दस हजार से कम लोग थे, सरकार ने उन्हें गिनना भी मुनासिब नहीं समझा और ऐसी सभी भाषा या बोलियों को ‘अन्य’ की एक श्रेणी में डाल दिया. फिर एक के बाद एक भाषा या बोलियां खत्म होती रहीं, लेकिन किसे परवाह है? आज की पीढ़ी हिंदी को इंग्लिश में, इंग्लिश को अन्य भाषाओँ में मिलाती है. क्या आपको नहीं लगता कि जंगल बचाओ आन्दोलन, शेर बचाओ आन्दोलन की तरह भारत वर्ष में भाषा बचाओ आन्दोलन की सख्त आवश्यकता है. यदि प्रयास नहीं किये गए तो भारत की भाषाएँ विनष्ट हो जायेंगी. पर यहाँ सुनने को कौन बैठा है? हमारी पीढ़ी में कितने लोगों को अपनी मातृभाषा में एक से सौ तक की गिनती आती है? पर अंग्रेजी पोएम अवश्य आती होंगी!
इस व्यथा ने अंतरात्मा को झझकोर दिया है और समझ नहीं आ रहा है कि क्या बोलूं. इतना कर सकता हूँ कि कम से कम मेरे जीवन में हिंदी और भारतीय भाषाएँ हमेशा सर्वोपरि रहेंगी.