इक आह सी दिल में उठती है, इक दर्द जिगर में उठता है,
हम रात में उठके रोते हैं, जब सारा ज़माना सोता है.
ये मेरा जीवन है, जो जाने मुझ से क्या चाहता है.
दिन होता है तो कुछ और तलाश होती है, रात होती है तो कुछ और तलाश होती है.
जब चलते हैं तो इक मंजिल की और मंजिल पे किसी राह की तलाश होती है.
करना क्या चाहते हैं ये तो पता नहीं, पर जाने किस पते की तलाश होती है.
चलते चलते जो मिले रह गुज़र, तो रास्ता ठीक से निकल गया,
वरना तो रास्ते में हर रोज इक रह गुजर की तलाश होती है.
तलाश करते करते ये जिंदगी इक तलाश बन गयी है, पर फिर भी इस तलाश में इक जिंदगी की तलाश होती है.
इक अजीब सी उलझन में फंसी है जिंदगानी, पर इस उलझन में भी एक रास्ते की तलाश होती है.
इक रब के दीदार से ये तलाश कहाँ पूरी हुई, जो इक रब के बाद दूसरे रब की तलाश होती है.
रविन्द्र सिंह ढुल/ ०७.०१.२०१२/जींद