फरवरी 2017 में भारत के प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश में एक चुनावी जनसभा को सम्बोधित करते हुए उत्तर प्रदेश में सरकार बनने पर किसानों के कर्ज माफ़ी का वायदा किया था. उस दिन से अब तक भारत के आठ राज्य कृषि ऋणों की माफ़ी की घोषणा कर चुके हैं. इसमें पंजाब, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश आदि प्रमुख हैं. इसके अलावा अन्य राज्यों पर भी ऋण माफ़ी का लगातार राजनैतिक दबाव बढ़ रहा है. जहाँ हरियाणा के मुख्यमंत्री इस बात से स्पष्ट इनकार कर चुके हैं वहीँ केंद्र सरकार पर चुनावों के सीजन में दबाव बनाया जा रहा है कि केंद्र सरकार किसानों के कर्ज की माफ़ी की कोई आम योजना लेकर आये. हालांकि केंद्र सरकार अभी तक स्पष्ट करती रही है कि किसानों की कर्ज माफ़ी को राज्य सरकारें अपने स्तर पर देखें; केंद्र सरकार इस बारे में कोई योजना नहीं लाने वाली है. हालाँकि देश व प्रदेशों में लगातार किसान अकेले अथवा संगठनों के मार्फत आन्दोलनरत्त हैं; लेकिन किसानों के कर्ज माफ़ी पर विशेषज्ञ एवं अर्थशास्त्री टकराव की स्थिति में दिख रहे हैं वहीँ दूसरी ओर हर राज्य में विपक्ष कर्ज माफ़ी को मुद्दा बता लगातार राजनीती कर रहा है.
क्या होता है किसानों का कर्ज और किसलिए इसकी जरूरत होती है?:
भारत की अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर करती है. भारत की जनसंख्या का लगभग 65% हिस्सा कृषि अथवा इसपर आधारित व्यवसायों पर निर्भर है. इतने बड़े पैमाने पर खेती होने के बावजूद भी ज्यादातर किसानों के पास खेती के लिए अधिक जमा पूँजी नहीं है. ऐसे में उन्हें खेती के लिए पूँजी की आवश्यकता रहती है. खेती के लिए बीज, डीजल, खेती उपकरण, कीटनाशक दवाइयां आदि के लिए किसानों को पूँजी की आवश्यकता रहती है. चूंकि भारत में अधिकतर किसान मझौले (2 एकड़ की जोत से कम) अथवा ठेके पर खेती करने वाले हैं; ऐसे में उन्हें खेती के लिए पूँजी की आवश्यकता होती है. यह पूँजी उन्हें आढ़ती, बैंक, वित्तीय संस्थानों से मिलती है. फसल के न बिकने के कारण, मौसमी मार अथवा फसल खराब होने की स्थिति में किसान अपने ऋण की अदायगी नहीं कर पाता; जिसके कारण किसानो के ऋण की माफ़ी की बात अक्सर उठती रही है.
कर्ज माफ़ी का इतिहास:
1987 में हरियाणा के तात्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी देवी लाल ने किसानों का 10000 रूपये तक का कर्ज माफ़ किया था. एतिहासिक रूप से यह कर्ज माफ़ी की पहली बड़ी योजना थी. तब से आज तक अलग अलग प्रकार से कर्ज की माफ़ी की गयी है ताकि किसानो को फौरी राहत मिल सके. पिछले कुछ वर्षों से किसान संगठनों के द्वारा और राजनैतिक पार्टियों के द्वारा कर्ज माफी की बात ने जोर पकड़ा है; इसका प्रमुख कारण है खेती की लागत में बढ़ोतरी लेकिन फसलों के दामों में ठहराव. ऐसे में किसान ऋण के एक कुचक्र में फंसते जा रहे हैं जिसके कारण बहुत से किसानों को आत्महत्या जैसे बड़े कदम उठाने पड़ते हैं. डेटा के अनुसार 2000 से अब तक तीन लाख से अधिक किसानों ने विभिन्न कारणों से आत्महत्या की है; जिसका सबसे बड़ा कारण किसानों का ऋण माना जा रहा है.
क्या ऋण माफ़ी समाधान है:
वैश्विक मंदी के कारण 2008-09 के बीच भारत में कोर्पोरेट घरानों का लगभग 1 लाख 46 हजार करोड़ का कर्ज माफ़ किया गया था. तब से अब तक लगातार कोर्पोरेट्स के लिए कोई न कोई राहत दी जाती रही है. इसके अलावा बिजली कम्पनियों के कर्ज माफ़ी की केंद्र सरकार की योजना के अंतर्गत हजारों करोड़ की ऋण माफ़ी तो केवल हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में हो चुकी है. ऐसे में किसानों के लिए किसी ऋण माफ़ी योजना का आना तर्क से परे की बात नहीं. कई वर्षों से किसानों की आय लगातार स्थिर रह रही है. कृषि सुधारों को लेकर आज से 12 वर्ष पहले आई स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को भी अभी तक लागू नहीं किया गया है; हालाँकि उसपर राजनीति बहुतेरी हुई है और दावे भी हुए हैं. लेकिन तथ्य यह है कि लागत से डेढ़ गुना मुआवजे की सिफारिश को भी अभी तक पूर्णतया लागू नहीं किया गया है. ऐसे में किसानों को कर्ज के एक अंतहीन सर्कल से निकालने के लिए ऋण माफ़ी की फौरी राहत देना अत्यंत आवश्यक है. हालांकि बहुत से पालिसी ग्रुप इसका अपने अपने तर्कों से विरोध कर रहे हैं लेकिन यह विरोध एक तरफा है क्योंकि वही ग्रुप्स कोर्पोरेट्स के लिए ऋण माफ़ी की वकालत करते दिखाई देते हैं. ऐसे में एक फौरी राहत के रूप में कृषि को प्रोत्साहन देने के लिए ऋण माफ़ी की आम योजना लाया जाना इस देश की अर्थव्यवस्था के लिए अत्यंत आवश्यक है. लेकिन यह समाधान नहीं है; इसे केवल राहत माना जाए तो सही रहेगा. किसानों की मूल समस्या उत्पादन लागत और उनको मिल रहे फसल के मूल्यों में है. स्टोरेज केपेसिटी के अभाव में छोटा किसान फसल को अपने पास रख नहीं पाता और औने पौने दामों में जाकर मंडी में उसे बेचना पड़ता है. हालांकि ट्रेंड देखा गया है कि सरकार द्वारा अधिकतर सीजन में समर्थन मूल्यों को सीजन के अंत में बढाया जाता है लेकिन इसका फायदा केवल बड़े किसानों को एवं आढतियों को मिलता है क्योंकि छोटे किसान तब तक फसल को बेच चुके होते हैं. ऐसे में फसल के सही भाव का निर्धारण और बीच में से बिचालियों को कम करना अथवा समाप्त करना ही सबसे बड़ा समाधान माना जा सकता है. इसके अलावा तेलंगाना की तरह किसानों के लिए एक सुनिश्चित आय का प्रावधान आवश्यक है ताकि किसान भविष्य की चिंता ना कर अपने एवं अपने परिवार के भविष्य को सुनिश्चित कर सके और भारत के आम जन का पेट भर सके. यहाँ यह बात ज्ञातव्य है कि आर्थिक सर्वेक्षण 2016 के अनुसार किसानों की प्रति परिवार मासिक आय लगभग 1700 रुपये है जो कि एक दिहाड़ी के मजदूर से भी कम है. ऐसे में किसानों से पैदावार की अपेक्षा करना और साथ ही साथ उनके भविष्य को अन्धकार में छोड़ देना कम से कम किसी पालिसी का कार्य नहीं हो सकता. एसी कमरों में कोर्पोरेट्स के लिए आर्थिक पॅकेज की वकालत करने वाले एवं किसानो की कर्ज माफ़ी का विरोध करने वाले अर्थशास्त्रियों एवं कथित विशेषज्ञों को चाहिए कि वे जमीन पर उतर भारत की 70% आबादी के जीवन यापन को देखें और उसके बाद योजनायें बनाएं.