भारत की आद्र्भूमियाँ(WETLANDS) और भारत सरकार की विफलता

2010 में जब भारत सरकार ने आद्र्भूमियों के संरक्षण और प्रबंधन के लिए नियम बनाए थे तो सबको आशा थी के जयराम रमेश के पर्यावरण मंत्री होने के नाते शायद सरकार कोई ठोस कदम उठाए, पर यह कानून भी अन्य कानूनों की तरह बिना धार की तलवार बना दिया गया. पूरे विरोध के बावजूद भी इसे 2011 में सरकार ने अधिसूचित कर दिया. २ फरवरी को विश्व आद्र्भूमि दिवस पर शायद ही किसी मीडिया हाउस ने या सरकारी संस्थान ने कोई सार्थक प्रयास किया हो. यहाँ हम यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि कानून बनाने में क्या भूल हुई और क्या खतरे हैं भारत की आद्र्भूमियों को.
नदियों, जलाशय एवं जमीनी पानी की तरह ही आद्र्भूमि भी जलीय चक्र का एक बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. ये न केवल जमीनी पानी को रिचार्ज करने के काम आती हैं, अपितु जैविक विविधता, जल स्वच्छीकरण, पक्षियों के लिए आराम करने की जगह, जलवायु नियंत्रण आदि कई महत्वपूर्ण कार्य करती हैं. इनकी प्रयावरण की महत्ता को देखते हुए, विश्व समुदाय ने मिलकर 1971 में रामसर अभिसमय(Convention) में इन्हें संरक्षित करने का संकल्प किया था एवं ऐसी आद्र्भूमियों को चिह्नित करने का बीड़ा उठाया था जो अंतर्राष्ट्रीय महत्ता रखती हैं. भारत में ऐसी आद्र्भूमियों की संख्या 25 है जो रामसर अभिसमय के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय आद्र्भूमि हैं.
इनकी महत्ता को देखते हुए केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय आद्र्भूमि संरक्षण प्रोग्राम भी 1985-86 में घोषित किया था, पर वह भी आशाओं के अनुरूप कार्य नहीं कर पाया.
इन नियमों की सबसे बड़ी कमी यह है कि आद्र्भूमियों के संरक्षण का सारा जिम्मा केंद्र एवं राज्य सरकार के पास है. लगभग सभी आद्र्भूमि; चाहे वे मानव निर्मित हों या प्राकृतिक ; अपने आस पास एक बड़े समाज का भरण पोषण करती हैं. इनमें मछली पकड़ने वाले, खेती करने वाले एवं अन्य छोटे मोटे कार्य करने वाले असंख्य लोग हैं. भारत के कानून में इन लोगों को कोई स्थान नहीं दिया गया है. हालांकि नियम ये सब गतिविधियाँ सरकार के नियंत्रण में चलाने की अनुमति देते हैं परन्तु इन लोगों की सलाह और इन लोगों के मेलजोल के बिना आद्र्भूमियों का संरक्षण हो पायेगा यह मुश्किल लगता है.
दूसरी महत्त्व पूर्ण कमियाँ इन नियमों में यह हैं कि लोकल मशीनरी जैसे पंचायत, जिला परिषद् को कोई भी रोल नहीं दिया गया है. इनके पूरे सहयोग के बिना, एवं सलाह के बिना आद्र्भूमि संरक्षण संभव हो पायेगा यह मुश्किल है. लोकल मशीनरी न केवल एक महत्त्वपूर्ण रोल अदा कर सकती हैं बल्कि इनकी सहायता से आद्र्भूमि के आस पास रहने वाले जन-मानस को भी शिक्षित किया जा सकता है. यह एक सत्य है कि कानून बनाना कभी भी किसी समस्या का हल नहीं कर पाया है, इसका हल केवल शिक्षा से हो सकता है. जब तक आस पास के लोग इसे समझेंगे नहीं कि आद्र्भूमि महत्वपूर्ण क्यों है, इनका संरक्षण करना संभव कैसे हो पायेगा. यहाँ यह कहना महत्वपूर्ण होगा कि पिछले दस पन्द्रह सालों में भारत अपनी 38% आद्र्भूमियों के एरिया को खो चुका है और इसके विभिन्न कारण हैं. यदि अब भी शिक्षित नहीं किया गया समाज को तो बहुत देर हो जायेगी.
अगली कमियां इन नियमों में यह है कि नियमों में एक वर्ष के भीतर भीतर आद्र्भूमियों की सफाई का एक असंभव कार्य करने का बीड़ा उठाया गया है पर यह कहीं भी लक्षित नहीं है कि यह कैसे होगा और इसके लिए क्या क्या क्रिया-कलाप किये जायेंगे. जो कार्य भारत में पिछले साठ वर्षों में नहीं हो पाया, वह एक वर्ष में हो जाएगा यह असंभव  लगता है.
विभिन्न कमियों में से एक कमी यह भी है कि आद्र्भूमि को नुकसान पंहुचाने वाली गति-विधियों को करने वालों को कितनी सजा मिलेगी. क्या यह आवश्यक नहीं था कि एक कठोर सजा का प्रावधान किया जाता, जबकि समस्त भारत में शिकारी, जल प्रदूषण, गैर कानूनी मछली पकड़ने वाले आद्र्भूमियों को एक ऐसा नुक्सान पंहुचा रहे हैं जो कभी भी ठीक नहीं हो पायेगा. अब ज़रा देखिये, कि सरकार की अनुमति से कोई भी गतिविधि की जा सकती है आद्र्भूमियों में; ज़रा सोचिये कि इसका आद्र्भूमि को फायदा होगा या नुक्सान. अच्छे प्रयावरण को संविधान का एक मौलिक अधिकार माना गया है (देखिये चमेली सिंह बनाम उत्तर प्रदेश सरकार, 1996 सुप्रीम कोर्ट).
आद्र्भूमियों को चिह्नित करने का तरीका भी गलत है. मुख्य नदी धारा को आद्र्भूमि नहीं माना गया है. अधिकतर आद्र्भूमि किसी न किसी जलधारा से ही निर्मित होती हैं. जब तक जलधारा में प्रदूषण एवं अन्य गैरकानूनी गतिविधियों को रोका नहीं जाएगा,तब तक आद्र्भूमि संरक्षित हो जायेंगी यह संदिग्ध है. हरियाणा की एक महत्वपूर्ण आद्र्भूमि है सुल्तान्पुर(गुडगाँव); यह मुख्य रूप से यमुना से आये जल से निर्मित है. यमुना के प्रदूषण ने इस पर इतना गहरा प्रभाव डाला है कि इसका जल काला हो गया है. यही हाल पंजाब की हरिके आद्र्भूमि का है जहां सतलुज और रावी का प्रदूषण एक कठिन परिस्थिति उत्पन्न कर रहा है.
हमें सोचना चाहिए और समझना भी चाहिए कि आद्र्भूमि प्रयावरण संरक्षण के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण हैं. न केवल सूखे के समय, बल्कि हर मुश्किल परिस्थिति में प्रयावरण के संतुलन को बनाए रखने में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है. पर सरकारें कुछ नहीं कर रही हैं और सभी प्रकार की गैर कानूनी गतिविधियाँ जैसे मछली पकड़ना, शिकार, खनन, जल प्रदूषण यहाँ पर धड़ल्ले से चल रहा है. यदि हम आज भी न संभलें तो बहुत देर हो जायेगी और नुक्सान ऐसा होगा जिसकी भरपाई आने वाली सदियाँ भी नहीं कर पाएंगी.

भारतीय भाषाओँ का विनाश और इंग्लिश

लार्ड मैकाले ने भारत में ब्रिटिश शिक्षा पद्दति को जब सख्ती से लागू किया था तो उसने ब्रिटिश सरकार को यह विश्वास दिलवाया था कि भारत में अंग्रेजी और अंग्रेजियत का प्रचार एवं प्रसार यदि किया गया तो भारत की संस्कृति धीरे धीरे समाप्त हो जाएगी और भारत की आने वाली पीढियां एक ऐसे समय में पैदा होंगी जब वे सिर्फ अंग्रेजी में सोचेंगे, अंग्रेजी में पढेंगे और अंततः यदि ब्रिटिश वहां न भी रहे तो भी सांस्कृतिक रूप से भारत हमेशा के लिए ब्रिटेन का गुलाम हो जाएगा. इस ही नीति के तहत उस समय प्रचलित हिन्दुस्तानी, उर्दू और हिंदी जैसी प्रमुख भाषाओं की जगह शिक्षा के लिए अंग्रेजी का प्रयोग किया गया. तीस चालीस साल आते आते भारत में एक ऐसी जमात तैयार हो गयी जो हिंदी और हिन्दुस्तानी को अपनी शान के खिलाफ और संस्कृत को मृत भाषा मानती थी. जब भारत आजाद हुआ तो संविधान निर्माताओं के ऊपर नया संकट पैदा हुआ, उन्हें यह तय करना था के भारत की राष्ट्रीय भाषा क्या होगी. महात्मा गाँधी के शब्दों में,” जो सभ्यता अपनी पृथकता और भाषा को त्याग देगी वह मृतप्राय हो जायेगी“. एक लम्बी चौड़ी बहस के बाद यह तय किया गया कि भारत वर्ष की मुख्य भाषाओं को संविधान में मान्यता दी जायेगी. अंग्रेजी को शासकीय भाषा के रूप में प्रयोग किया जाएगा और 1965 तक उसे भारत से चलता कर दिया जाएगा. पर इस सन तक आते आते भारत कई हिंदी विरोधी दंगों से गुजरा जिनमें से मुख्य दंगे मद्रास में हुए जहां पर लगभग अस्सी विद्यार्थियों ने स्वयं को आग लगा कर मृत्यु के हवाले कर दिया. इन सब का कहना था कि हिंदी नहीं उनकी अपनी भाषा राष्ट्रीय भाषा बने. अतः एक संविधानिक संशोधन लाकर १९६५ को वैकल्पिक साल बना दिया गया. पर हिंदी और अन्य भाषाओं को बचाने के लिए इच्छा शक्ति तब तक समाप्त हो गयी थी क्योंकि एक पूरी पीढ़ी तैयार हो चुकी थी जो अंग्रेजी को अपने जीवन का अभिन्न अंग एवं अन्य भाषाओं को सौतेला समझती थी. विश्व की सबसे समृद्ध सांस्कृतिक विरासत एवं सबसे महान भाषा संस्कृत की जननी इस भारत भूमि पर उसकी अपनी भाषाएँ बेगानी हो गयी. एक कवि की हिंदी की उपेक्षा पर एक दर्दनांक कविता से समझें तो ,“खाट पर पसरी हुई मेहमान अंग्रेजी के साथ, अपने घर में हिंदी की लाचारगी को सोचना” . इस ही दुर्दशा को देख कर भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी कहा था
,”निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।

अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन, पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।।

पर न तो अंग्रेजी रुकी और न ही भारतीय भाषाओं का मान मर्दन रुका. क्या आप जानते हैं कि 1961 की जनगणना में 1652 मातृभाषाओं की सूची बनी थी. जो 1971 में घटकर 109 रह गई. 1971 की जनगणना में जिन भाषाओं को बोलने वाले दस हजार से कम लोग थे, सरकार ने उन्हें गिनना भी मुनासिब नहीं समझा और ऐसी सभी भाषा या बोलियों को ‘अन्य’ की एक श्रेणी में डाल दिया. फिर एक के बाद एक भाषा या बोलियां खत्म होती रहीं, लेकिन किसे परवाह है? आज की पीढ़ी हिंदी को इंग्लिश में, इंग्लिश को अन्य भाषाओँ में मिलाती है. क्या आपको नहीं लगता कि जंगल बचाओ आन्दोलन, शेर बचाओ आन्दोलन की तरह भारत वर्ष में भाषा बचाओ आन्दोलन की सख्त आवश्यकता है. यदि प्रयास नहीं किये गए तो भारत की भाषाएँ विनष्ट हो जायेंगी. पर यहाँ सुनने को कौन बैठा है? हमारी पीढ़ी में कितने लोगों को अपनी मातृभाषा में एक से सौ तक की गिनती आती है? पर अंग्रेजी पोएम अवश्य आती होंगी!
इस व्यथा ने अंतरात्मा को झझकोर दिया है और समझ नहीं आ रहा है कि क्या बोलूं. इतना कर सकता हूँ कि कम से कम मेरे जीवन में हिंदी और भारतीय भाषाएँ हमेशा सर्वोपरि रहेंगी.

क्रांति का अर्थ

क्रांति का अर्थ:
क्रांति का आज कल हर जगह मजाक उड़ाया जा रहा है.कभी ये आन्दोलन तो कभी वो आन्दोलन, लगता है जैसे भारतवर्ष में आंदोलनों की बहार आ गयी है.पंद्रह अगस्त क्या आई रामदेव जी ने अगस्त क्रांति का ऐलान कर दिया. कुछ ही दिन बीते थे जब अन्ना हजारे जी एक क्रांति का नेतृत्व कर रहे थे….अब ज़रा जन-मानस को कौन समझाए कि “अगस्त क्रांति” का भारत वर्ष में दूसरा उदाहरण कभी भी पैदा नहीं हो पायेगा. जमीर के बिना क्रांति संभव नहीं है…यदि हमारे विचार पवित्र हैं तो हम अवश्य एक ऐसी क्रांति ला पायेंगे जो समाज को कुछ हद तक बदलने में सहायक हो. पर तब तक हमें प्रयास अवश्य करने होंगे. अब ज़रा क्रांति के नायकों के बारे में बात कर ली जाए. एक बात पूरी तरह से सही है कि क्रांति कभी भी कोई नायक पैदा नहीं कर सकता. इसका उल्टा बिल्कुल सही है, क्रांति हमेशा से नायक पैदा करती रही है…जनता जब व्यवस्था परिवर्तन के लिए उठ खड़ी होती है तो नायक अपने आप मिल जाते हैं. भारत में यह हमेशा एक प्रश्न जनमानस में कोंधता रहता है कि क्या भारत वर्ष को गाँधी जी ने आजादी दिलवाई थी? इसके लिए हमें गाँधी जी को समझना होगा. उन कारणों को समझना होगा जो गाँधी जी को वह बना गए जो वे आज हैं. एक सीधी साधी वकालत करने वाला और सफल बैरिस्टर किस लिए लंगोट पहन कर इतिहास बनाने कूद पडा. इसका उत्तर आपको दक्षिण अफ्रीका में उस समय उठ रहे विद्रोह में मिलेगा जिसका शांति पूर्वक नेतृत्व करके गाँधी जी भारत में एक नायक के रूप में प्रथम विश्वयुद्ध के समय जाने गए. भारत में उसका उत्तर आपको उनके राजनैतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले और उस समय के सैंकड़ों बड़े नेताओं में मिलेगा जिनकी विचारधारा नें गाँधी जी को एक धोती में आने में मजबूर किया. क्या गाँधी जी ने अफ्रीका में विद्रोह पैदा किया या अफ्रीका में विद्रोह से गांधी जी पैदा हुए? क्रान्ति के नायक का उत्तर आपको यहाँ मिलेगा. आज के समय में जनमानस उबल पड़ने का बहाना ढूंढ रहा है. व्यवस्था परिवर्तन के लिए आवाज उठाने वाले हर एक नेता के साथ लाखों लोग खड़े हो जाते हैं. फिर वे नायक घमंड में चूर अपने आपको उस क्रांति का जनक मान लेते हैं जिसको पैदा करने की ताकत एक व्यक्ति में कभी भी नहीं हो सकती. हाँ ये हो सकता है कि वह व्यक्ति अपनी विचार धारा से क्रांति की दिशा को तय कर दे या उस व्यक्ति के द्वारा दिखाए गए रास्ते पर जनमानस को सफलता मिले. जय प्रकाश नारायण के आन्दोलन के समय राष्ट्र कवि दिनकर की कविता”सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” क्रांति के सही स्वरुप को दर्शाती है. आवश्यक नहीं कि मैं अपने विरोध को केवल एक रूप में प्रकट करूँ..किसी भी क्रांति में इतनी ताकत अवश्य होती है कि वह सभी विचारधाओं को समाहित करले. गांधी जी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने भगत सिंह या चन्द्र शेखर आजाद! तो फिर क्रांति का केवल एक नायक कैसे हुआ? अठारह सो सत्तावन के विद्रोह को झांसी वाली रानी कि बहादुरी के लिए याद रखा जाता है, क्या उस क्रांति में मंगल पण्डे, तात्यां टोपे, नाना साहिब या उनके जैसे हजारों नायकों का कोई योगदान नहीं था. उस क्रांति ने वे सब नायक पैदा किये थे.
एक पुराना दोहा है जो क्रांति के नायक को परिभाषित करता है ” शूरा सो पह्चनिए, जो लडे दीन के हेत. पुर्जा पुर्जा कट मरे, कबहूँ ना छाडे खेत “. क्या ऐसा शूरवीर केवल एक या दो होते हैं. क्या भगत सिंह को याद करते हुए हम दुर्गा भाभी को भूल जाते हैं या ग़दर पार्टी के नायक करतार सिंह सराभा को भूल जाते हैं. क्या हम पटेल को समझे बिना गाँधी को समझ पायेंगे. क्या इतिहास इस बात का गवाह नहीं है कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के द्वारा उठाया गया छोटा सा कदम जो शायद भारत को आजाद करवाने में भले ही कारागार न साबित हुआ हो, वह कदम इतना महान था कि नेताजी के नाम पर आज भी हजारों लाखों युवा जीने मरने की कसमें खाते हैं. क्रांति के नायक का केवल एक ही धर्म है कि वह अपने स्वार्थ के लिए नहीं राष्ट्र हित में लड़े फिर चाहे उसे सफलता मिले या असफलता, क्रांति असफल नहीं होती.यही ऊपर के दोहे का सार है. क्या आज के हमारे तथाकथित नायक इस परिभाषा में सटीक बैठते हैं? दिनकर की एक और महान रचना के कुछ शब्द उदृत करना चाहूँगा “चिटकाई जिनमें चिंगारी,जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर-लिए बिना गर्दन का मोल। कलम, आज उनकी जय बोल” ये है क्रांति और ये हैं क्रांति के नायक.
क्रांति कभी असफल नहीं होती, जब तक कि वह अपने अंजाम तक न पंहुच पाए. यदि असफल हुई तो वह क्रांति नहीं हो सकती. रूस के शब्दों में कहें “Long Live Revolution” यानी “इन्कलाब जिंदाबाद”. किसी भी व्यक्ति विशेष से ऊपर राष्ट्रप्रेम से भरपूर क्रांति के अर्थ को छोटा होते देख कर दुःख होता है.
पर क्या भारत सीखेगा? क्या इसके नागरिक सीखेंगे यह बात कि मतभेद होना कभी भी क्रांति को कमजोर नहीं करता अपितु उसे सही दिशा देता है क्योंकि कमी पकड़ में आती है.या क्रांति अभी नहीं आई है, ज़रा सोचिये!
माँ भारती आपके मार्ग को प्रशस्त करे. जय हिंद!

भ्रष्ट देश के भ्रष्ट निवासी, हम सब एक हैं

भ्रष्ट देश के भ्रष्ट निवासी, हम सब एक हैं.
एक देश है, हजारों भाषा,
हजारों जाति और अनेक धर्म.
उबलता है देश सारा, के भारत नहीं है हमारा.
उबलते हैं सभी धर्म, के भारत नहीं है हमारा.

एक धर्म है हमारा, जो रखे देश को एक,
इस देश के भ्रष्ट लोग न पूछे कोई जाति,
बस हाथ फैलाकर करते स्वागत, हो कोई भी धर्म,
हमको पैसा देदो भाई, भले हो आपका कोई भी मर्म.

भारत एक है जब सामने आवे भ्रष्टाचार,
भ्रष्ट देश के भ्रष्ट निवासी एक साथ करें गुणगान,
हमारे सपने को भी कभी मिलेगा आकार,
बने भारत का एक नया ही राष्ट्रगान,
“भ्रष्ट देश के भ्रष्ट निवासी हम सब एक हैं,
कई धर्म हैं कई भाषा, होती हैं कई जाति भी,
एकता और अखंडता को एकजुट रखने में हम सब एक हैं,
जब तक जेब में आते नोट, भारत एक है.
भ्रष्ट देश के भ्रष्ट निवासी हम सब एक हैं.”—-रविन्द्र

तलाश

इक आह सी दिल में उठती है, इक दर्द जिगर में उठता है,
हम रात में उठके रोते हैं, जब सारा ज़माना सोता है.

 

ये मेरा जीवन है, जो जाने मुझ से क्या चाहता है.

 दिन होता है तो कुछ और तलाश होती है, रात होती है तो कुछ और तलाश होती है.
 जब चलते हैं तो इक मंजिल की और मंजिल पे किसी राह की तलाश होती है.
करना क्या चाहते हैं ये तो पता नहीं, पर जाने किस पते की तलाश होती है.
 चलते चलते जो मिले रह गुज़र, तो रास्ता ठीक से निकल गया,
वरना तो रास्ते में हर रोज इक रह गुजर की तलाश होती है.
तलाश करते करते ये जिंदगी इक तलाश बन गयी है, पर फिर भी इस तलाश में इक जिंदगी की तलाश होती है.
इक अजीब सी उलझन में फंसी है जिंदगानी, पर इस उलझन में भी एक रास्ते की तलाश होती है.
इक रब के दीदार से ये तलाश कहाँ पूरी हुई, जो इक रब के बाद दूसरे रब की तलाश होती है.
रविन्द्र सिंह ढुल/ ०७.०१.२०१२/जींद

पास खडा था भ्रष्टाचार

सुबह उठ कर आँख खुली तो पास खडा था भ्रष्टाचार,

 

अट्टहास लगाता हुआ, प्रश्न चिह्न लगाता हुआ.
जब पूछा मैंने, तुझमें इतने प्राण कहाँ से आये,
के तुम बिन पूछे, बिन बताए मेरे घर भी दौड़ आये.
हंसता हुआ, वो बोला, तुम शायद अवगत नहीं,
कल रात ही संसद में मुझे जीवनदान मिला है.
देश शायद सो रहा था, दिवा स्वप्न के बीज अपने घर में बो रहा था,
इतने में एक कानून आया, जिसने भ्रष्टाचार को मिटाने का संकल्प दोहराया.
बस उस कानून से मुझे जीवन दान मिला है,
अब तक तो मैं सिर्फ घर के बाहर सड़क पर, दफ्तरों में पाया जाता था,
अब मैं घर में, आपके साथ खड़ा,
अट्टहास करूँगा, आपकी बेचैनी पर,
मेरा जीवन हरण करने चला था जो चौकीदार,
उसे ही रिश्वत से मैंने अपने साथ मिला लिया……रविन्द्र सिंह ढुल/२८.१२.२०११

धर्मनिरपेक्षता

रूचीनां वैचित्र्य अदृजुकुटिलनानापथजुषां.
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसमर्णाव इव. (शिव महिम्नः स्तोत्र, ७ )

अर्थात हे शिव, जिस प्रकार विभिन्न नदियाँ विभिन्न पर्वतों से निकलकर सरल तथा वक्र गति से प्रवाहित होती हुई अंततः समुद्र में ही मिल जाती है, उसी प्रकार अपनी विभिन्न प्रवृतियों के कारण जिन विभिन्न मार्गों को लोग ग्रहण करते हैं, सरल या वक्र रूप में विभिन्न लगने पर भी वे सभी लोग तुम तक ही पंहुचते हैं.

उपरोक्त श्लोक हिन्दू धर्म के सिद्धांत “सर्व धर्म समभाव” को प्रदर्शित करने वाला एक बेहद शानदार श्लोक है. यह आंग्लभाषा के शब्द “secularism” से बिल्कुल.  अलग है. आज कल धर्मनिरपेक्षता को अलग अलग तरह से परिभाषित करने की होड़ सी लगी है. मैं इस परिभाषा को राजनैतिक न बनाते हुए सीधे सीधे परिभाषित करने का प्रयास करता हूँ, जैसा कि हिन्दू धर्म में किया गया है. इस सिद्धांत को शब्द कोष के द्वारा परिभाषित करना बेहद आसान पर विचारों में समायोजन करना उतना ही कठिन एवं दुरूह कार्य है. धर्मनिरपेक्षता अर्थात किसी धर्म विशेष के लिए अपनी अपेक्षा न रखना, यह है इसका सीधा साधा शब्दकोष का अर्थ. पर यह लिया जाता है किसी और रूप में. इसे परिभाषित किया जाता है अपने अपने तरीके से एवं अपने अपने दृष्टिकोण से. गीता में कृष्ण कहते हैं”हे अर्जुन! जग में जहां जहां भी अच्छा कार्य होता है, धर्म का कार्य होता है, वहां मैं पाया जाता हूँ” तो प्रभु ने धर्मनिरपेक्षता को आयाम देते हुए कहा कि इसका अर्थ है सभी प्रकार की धार्मिक विचारधारा को सम्मान देना. तो आप सीधे सीधे देख सकते हैं फर्क दोनों विचारधाराओं में. एक कहती है किसी धार्मिक विचार को तवज्जो न दो, दूसरी कहती है सभी धर्मों को एक नजर से देखो और उनके विचारों का भी सम्मान करो.

उपरोक्त का सीधा सीधा मतलब निकालें तो वह यह होगा कि यदि किसी जगह पर किसी दुसरे धर्म से कोई सही विचार ग्रहण कर सकते हैं तो हम सही मायने में धर्म निरपेक्ष होंगे. अपने या दूसरों के धर्म या उनकी मान्यताओं को अधिक तवज्जो देने की आवश्यकता नहीं है. बस अपने विचार पर अडिग रहिये, यदि वह विचार सही है, वह मान्यता सही है तो बच जायेगी, वरना समाप्त हो जायेगी. चाहे शिव महिम्नः स्तोत्र हो या गीता, एक ही विचार दिखेगा कि लक्ष्य एक प्रभु तक पंहुचने का है, रास्ता चाहे कोई भी हो, पंहुचेगा एक ही जगह. तो हमारा विचार किसी और के विचार से श्रेष्ट कैसे हुआ? यदि अपने विचार को श्रेष्ट बनाना है तो अपनी विचारधारा को समृद्ध बनाना भी हमारा काम है. हिन्दू धर्म सहिष्णु है, यही हमारी विचारधारा है. यही एक कारण है जो स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार हमारी संस्कृति के जीवित रहने का कारण है. क्या कारण है ग्रीक, मिस्र या मेसोपोटामिया के लोग समाप्त हो गए, या मंगोल समाप्त हो गए? हम बचे हैं हमारे दृढ विचार धारा के कारण जो हमें यह सिखाती है “उदार चरितानाम वसुधैव कुटुम्बकम” अर्थात उदार चरित वालों के लिए तो सारी धरती एक कुटुंब के समान है.

अतः अपनी धर्मनिरपेक्षता को नया आयाम दीजिये, इसे धर्म के प्रति उदासीनता नहीं, वरना धर्म के प्रति जागरूकता बनाइये. निकाल फैंकिए ऐसे किसी भी विचार को जो संकीर्ण बनाता है आपकी मानसिकता को या आपको विनाश की और लेकर जाता है. माँ भारती आपके मार्ग को प्रशस्त करे.

रविन्द्र सिंह ढुल/२४.१२.२०११

कानून की देवी तेरी जय जय कार

कानून की देवी तेरी जय जय कार,
छाया जब हर जगह अन्धकार,
राजा करता हो जनता पर अत्याचार,
ले हाथ में तराजू, जब उठाया तुमने यह बीड़ा,
हिल गयी सरकारें, पलट गए ताज.
कहती सरकारें, सीमा में नहीं कानून अब,
देवी करती सरकार पर अत्याचार,
पर पूछती है कलम मेरी इन सरकारों से,
क्यों छीना निवाला गरीब का, क्यों फैलाया भ्रष्टाचार.-रविन्द्र सिंह ढुल/दिनांक २३.१२.२०११

सेठ के चार सेवक और “लोकपाल”

एक कथा प्रस्तुत कर रहा हूँ, ये मुझे एक परम मित्र ने पिछले दिनों सुनाई थी. एक सेठ था जो हर रोज रात को एक किलोग्राम दूध पीता था. उसने अपने बुढापे के कारण एक सेवक रख लिया. उस सेवक का कार्य केवल रात को दूध गर्म करके सेठ को देना था. उस नौकर ने कुछ ही दिन में गड़बड़ शुरू कर दी. वह रात को एक पाव दूध स्वयं पी जाता और बाकी सेठ को पानी मिला के दे देता. सेठ को कुछ न सूझी, उसने एक और सेवक रख लिया, उस सेवक का काम था पुराने नौकर को देखना कि कहीं वह गड़बड़ तो नहीं कर रहा. अब दोनों आपस में मिल गए और सेठ को केवल आधा किलो दूध मिलता. सेठ बड़ा परेशान हुआ, कुछ सूझता न देख उसने एक सेवक को रख लिया और दोनों सेवकों को उसके अन्दर कर दिया. अब तीनो ने मिल बाँट कर दूध पीना शुरू कर दिया और सेठ को केवल एक पाव दूध देते. सेठ बेहद परेशान हो गया और उसने एक सेवक रख लिया अपने बाकी भ्रष्ट सेवकों के ऊपर. उसे जिम्मेदारी दी गयी कि अपने तीन सेवकों के भ्रष्ट आचरण पर नज़र रखे और समय पर सेठ को बताए. उस सेवक ने पहले तो तीनों सेवकों को देखा, सेठ को अपने विश्वास में लिया और फिर अपना हिस्सा माँगा. जब तीनों ने बताया कि वे कैसे सेठ को बेवक़ूफ़ बना रहे हैं तो चौथा सेवक बोला अब सेठ को कोई दूध नहीं देगा. योजना अनुसार चौथे सेवक ने सेठ को दूध नहीं दिया. थका हुआ सेठ रात को दूध का इंतज़ार करते हुए सो गया. सोने के बाद चौथे सेवक ने सेठ के होठों पर मलाई लगा दी. सुबह उठने के बाद सेठ ने सबसे पहले दूध की बात पूछी तो सेवक ने बताया सेठ जी अपने मूंह पर लगी मलाई देख लो, रात को आपने दूध पिया तो था, पर शायद आप भूल गए.
अब सोचिये, कहीं आपका लोकपाल सेठ के चौथे सेवक की तरह तो नहीं है. क्या नैतिक उत्थान के बिना राष्ट्र का उत्थान संभव है? मेरा उत्तर “नहीं ” होगा.

सरकार और आम आदमी…

मैं खड़ा हूँ,
मेरा अंतर्द्वंद मुझे जीने न दे रहा है,
जब सारा भारत खड़ा है तो मैं क्यों सो रहा हूँ?
ऐसा सोच आम आदमी एक दिन सारे भारत के साथ धरने पर बैठ गया,
सुबह पत्रकारों ने आम आदमी को नेता घोषित किया,

दोपहर आम आदमी को भारत का भविष्य घोषित किया,

शाम आई और आम आदमी ने बैठकर सोचा,
मेरी सरकार शायद आम आदमी की सरकार है,
मेरे दुःख से शायद किसी को सरोकार है,
जब-जब मैंने उठना चाहा, बाँध हाथ बिठा दिया,
जब-जब मैंने उड़ना चाह, बाँध पंख बिठा दिया,
शायद वह पुरानी यादें, अब बस यादें हैं.
इसी उधेड़ बुन में वह आम आदमी, सो गया.

उठ सुबह जब हुआ नया सवेरा,
प्रभात की किरणों ने आम आदमी का चेहरा जगमगाया,
आम आदमी ने खुद को सड़क पर पाया,
न पेट में अनाज, न तन पर कोई कपडा,
कहाँ गया जो मेरे पास था मेरा रैन बसेरा,

टूटा दिवा स्वप्न तो उसे याद आया,
कल था चुनाव, आम आदमी राजा था,
आज है आम आदमी की नयी सरकार,
और आम आदमी फिर से हाथ बाँध कर नए सवेरे को याद कर रहा है.

“सोच सोच कर मैंने सरकार बनायीं, पर फिर भी इतनी अक्ल मुझे न आई,
सरकार आम आदमी के लिए नहीं, सरकार आम आदमी से बनती है.
कार्य तब भी वह अपने लिए करती थी, कार्य अब भी वह अपने लिए ही करती है.”

-रविन्द्र सिंह ढुल/२५.१२.२०११