अफ़लातून महाराजाधिराज ‘सूरजमल’ सिनसिनवार surajmal अफ़लातून महाराजाधिराज ‘सूरजमल’ सिनसिनवार surajmal 750x350

अफ़लातून महाराजाधिराज ‘सूरजमल’ सिनसिनवार

एशियाई प्लेटो चिरकाल कूटनीतिज्ञ अफ़लातून महाराजाधिराज ‘सूरजमल’ सिनसिनवार, भरतपुर (लोहागढ) को बलिदान दिवस पर सत-सत नमन; महाराजा सुरजमल विशेषमुगलों के आक्रमण का प्रतिकार करने में उत्तर भारत में जिन राजाओं की प्रमुख भूमिका रही है, उनमें भरतपुर (राजस्थान) के महाराजा सूरजमल जाट कानाम बड़ी श्रद्धा एवं गौरव से लिया जाता है। उनका जन्म 13 फरवरी, 1707 में हुआ था। ये राजा बदनसिंह ‘महेन्द्र’ के दत्तक पुत्र थे। उन्हेंपिता की ओर से वैर की जागीर मिली थी। वे शरीर से अत्यधिक सुडौल, कुशल प्रशासक, दूरदर्शी व कूटनीतिज्ञ थे। शायद भारत का इकलौता ऐसा महाराजा जिसका खजांची एक दलित हुआ| उन्होंने 1733 में खेमकरण सोगरिया की फतहगढ़ी पर हमला कर विजय प्राप्त की।इसके बाद उन्होंने 1743 में उसी स्थान पर भरतपुर नगर की नींव रखी तथा 1753 में वहां आकर रहने लगे।महाराजासूरजमल की जयपुर के महाराजा जयसिंह से अच्छी मित्रता थी। जयसिंह की मृत्यु के बाद उसकेबेटों ईश्वरी सिंहऔर माधोसिंह में गद्दी के लिए झगड़ा हुआ। सूरजमल बड़े पुत्र ईश्वरी सिंह के, जबकि उदयपुर के महाराणा जगतसिंह छोटे पुत्र माधोसिंह के पक्ष में थे।मार्च 1747 में हुए संघर्ष में ईश्वरी सिंह की जीत हुई। आगे चलकर मराठे, सिसौदिया, राठौड़ आदि सात प्रमुख राजा माधोसिंह के पक्ष में होगये। ऐसे में महाराजा सूरजमल ने 1748 में 10,000 सैनिकों सहित ईश्वरी सिंह का साथ दिया और उसे फिर विजय मिली। इससे महाराजा सूरजमल का डंका सारे भारत में बजने लगा।मई 1753 में महाराजा सूरजमल ने दिल्ली और फिरोजशाह कोटला पर अधिकार कर लिया। दिल्ली के नवाब गाजीउद्दीन ने फिर मराठों को भड़का दिया। अतः मराठों ने कई माह तक भरतपुर में उनके कुम्हेर किले को घेरे रखा। यद्यपि वेपूरी तरह उस पर कब्जा नहीं कर पाये औरइस युद्ध में मल्हारराव का बेटा खांडेराव होल्कर मारा गया। आगे चलकर महारानी किशोरी ने सिंधियाओं की सहायता से मराठों और महाराजा सूरजमल में संधि करा दी।उन दिनों महाराजा सूरजमल की शक्ति अपने चरमोत्कर्षपर थी। कई बार तो मुगलों ने भी सूरजमल की सहायता ली। मराठा सेनाओं के अनेक अभियानों में उन्होंने ने बढ़-चढ़कर भाग लिया; पर किसी कारण से सूरजमल और सदाशिव भाऊ में मतभेद हो गये। इससे नाराज होकर वे वापस भरतपुर चले गये।14 जनवरी, 1761 में हुए पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठा शक्तिओं का संघर्ष अहमदशाह अब्दाली सेहुआ। इसमें एक लाख में से आधे मराठा सैनिक मारे गये। मराठा सेना के पास न तो पूरा राशन था और न हीइस क्षेत्र की उन्हें विशेष जानकारी थी। यदि सदाशिवभाऊ के महाराजा सूरजमल से मतभेद न होते, तो इस युद्ध का परिणाम भारत और हिन्दुओं के लिए शुभ होता। इसके बाद भी महाराजा सूरजमल ने अपनी मित्रता निभाई। उन्होंने शेष बचे घायल सैनिकों के अन्न, वस्त्र और चिकित्सा का प्रबंध किया। महारानी किशोरी ने जनता से अपील कर अन्न आदि एकत्र किया। ठीक होने पर वापस जाते हुए हर सैनिक को रास्ते केलिए भी कुछ धन, अनाज तथा वस्त्र दिये। अनेक सैनिक अपने परिवार साथ लाए थे। उनकी मृत्यु के बाद सूरजमल ने उनकी विधवाओं को अपने राज्य में ही बसा लिया। उन दिनों उनके क्षेत्र में भरतपुर के अतिरिक्त आगरा, धौलपुर, मैनपुरी, हाथरस, अलीगढ़, इटावा, मेरठ, रोहतक, मेवात, रेवाड़ी, गुड़गांव और मथुरा सम्मिलित थे। मराठों की पराजय के बाद भी महाराजा सूरजमल ने गाजियाबाद, रोहतक और झज्जर को जीता। वीर की सेज समरभूमि ही है। 25 दिसम्बर, 1763 को नवाब नजीबुद्दौला के साथ हुए युद्ध में गाजियाबाद और दिल्ली के मध्य हिंडन नदी के तट पर महाराजा सूरजमल ने वीरगति पायी…!!

बागरु (मोती-डूंगरी) की लड़ाई में मुग़ल-मराठा-राजपूत-होल्कर की 7 सेनाओं को इकट्ठा हरा प्रिंस सूरज कहलाये थे महाराजा सूरजमल:

आमेर (जयपुर) राजघराने की राजगद्दी बाबत राजपूत राजा ईश्वरी सिंह और उनके भाई माधो सिंह की लड़ाई थी बागरू की लड़ाई|

इस पर राजा ईश्वरी सिंह ने ब्रजराज बदन सिंह को कुछ यूँ सन्देश भिजवाया:

देषि देस को चाल ईसरी सिंह भुवाल नैं।

पत्र लिख्यौ तिहिकाल बदनसिंह ब्रजपाल कौ।।

करी काज जैसी करी गुरुडध्वज महाराज।

पत्र पुष्प के लेते ही थे आज्यौ ब्रजराज।।

आयौ पत्र उताल सौं ताहि बांचि ब्रजयेस।

सुत सरज सौं तब कहौ थामि ढुढाहर देस।|

इस पर ब्रजराज ने अपने प्रिन्स सूरज के नेतृत्व में 20000 सेना भेजी|

युद्ध-मैदान कुछ यूँ सजा:

20-21-22 अगस्त 1748 तीन दिन की इस ऐतिहासिक लड़ाई में एक तरफ तीन लाख तीस हजार (330000) सैनिकों से सजी मुगल-मराठा पेशवाओं और माधो सिंह के पक्ष वाले राजपूतों की 7-7 सेनायें, तो दूसरी तरह राजा ईश्वरी सिंह के पक्ष में सजी मात्र बीस हजार (20000) की कुशवाहा राजपूत और हरयाणा-ब्रज रियासत भरतपुर की सिर्फ 2 सेनाएं।

एक तरफ छोटे आकार के सैनिक तो दूसरी तरफ ये 7-7 फुटिये लम्बे-चौड़े 150-150 किलो वजनी भरतपुर जाट सेना के सैनिक। एक तरफ अस्सी हजार (80000) की टुकड़ी तो दूसरी तरफ मात्र दो हजार (2000) की टुकड़ी उनको गुर्रिल्ला वार में छका-छका के पीटती हुई। एक तरफ गाजर-मूली की तरह कटते सैनिक तो दूसरी तरफ पचास-पचास (50-50) को मारने वाला एक-एक जाट और कुशवाहा राजपूत सैनिक। एक तरफ 7-7 राजा तो दूसरी तरफ 7 फुटी 200 किलो वजनी अकेले भरतपुर प्रिन्स सूरज। और यह लड़ाई चली भी पूरे तीन दिन थी और वो भी बरसाती तूफानों में अरावली के रेतीले मैदानों और पथरीले पहाड़ों के बीच सरे-मैदान लड़ी गई थी। कुल मिला के क्या ‘ट्रॉय’, क्या ‘ग्लैडिएटर’, क्या ‘स्पार्टा’, क्या ‘300’ और क्या ‘बाहुबली’; इनसे भी कालजयी थिएट्रिकल दृश्य उस युद्धे-मैदान सजा था| कुशवाहा राजपूत सेनापति दूसरे दिन वीरगति को प्राप्त हुआ तो अब सारा दारोमदार अकेले सूरज-सुजान के कन्धों पर आन पड़ा| और तब वो दुदुम्भी मची थी कि रणचंड़ी भी स्तब्ध देखती रह गई और अंत में माधो सिंह की जिद्द की हार हुई और इस प्रकार सूरज-सुजान ने राजा ईश्वरी सिंह आमेर की गद्दी पर विराजमान रखवाये| धन्य है यह धरा, धन्य है वो कायनात, जिसने उस अफलातून को साक्षात् धरती पर चलते हुए देखा, तांडव करते हुए देखा| जिस दौर में राजपूत राजा मुगलों से अपनी बहन-बेटियों के रिश्ते करके जागीररें बचा रहे थे. उस दौर में यह बाहुबली जाट महाराजा अकेला मुगलों से लोहा ले रहा था. सूरजमल को स्वतंत्र हिन्दू राज्य बनाने के लिए भी जाना जाता हैं। तो अपनी यायावरी-यारी निभाने हेतु ठाकुर साहब के आदेश पर कुंवर सूरजमल ने जब 3 लाख 30 हजार सैनिकों से सजी 7-7 सेनाओं {पेशवा मराठा, मुग़ल नवाब शाह, राजपूत (राठौर, सिसोदिया, चौहान, खींची, पंवार)} को मात्र 20 हजार सैनिकों के दम पर बागरु (मोती-डुंगरी), जयपुर के मैदानों में धूळ-आँधी-बरसात-झंझावात के बीच 3 दिन तक गूंजी गगनभेदी टंकारों के मध्य हुए महायुद्ध में अकेले ही पछाड़ा तो समकालीन कविराज कुछ यूँ गा उठे:

ना सही जाटणी ने व्यर्थ प्रसव की पीर,

गर्भ से उसके जन्मा सूरजमल सा वीर|

सूरजमल था सूर्य, होल्कर उसकी छाहँ,

दोनों की जोड़ी फबी युद्ध भूमि के माह||

जाटों से संधि कर, जाटों को ही धोखे में रख दिल्ली अफगानों (अब्दाली) से जीत, जाट राज्य को सौंपने की अपेक्षा मुग़लों को ही देने की छुपी योजना रखने वाले महाराष्ट्री पेशवाओ की चाल को अपनी कुटिल बुद्धि से पहचान, अपने आप पर पेशवाओं द्वारा बिछाए बंदी बनाने के जाल को तोड़ निकल आने वाला वो सूरज सुजान, जब ले सेना रण में निकलता था तो धुर दिल्ली तक मुग़ल भी कह उठते थे:

तीर चलें, तलवार चलें, चलें कटारें इशारों तैं,

अल्लाह-मियां भी बचा नहीं सकदा, जाट भरतपुर आळे तैं!

ऐसी रुतबा-ए-बुलंदी थी लोहागढ़ के उस लोहपुरुष की!

खैर, उनका बुरा सोचने वाले महाराष्ट्री पेशवाओं को पानीपत में सबक मिल ही गया था| और महाराजा सूरजमल ने फिर भी अपनी राष्ट्रीयता निभाते हुए, पेशवाओं के दुश्मन (अब्दाली) से दुश्मनी मोल लेते हुए, पानीपत के घायलों की मरहमपट्टी कर, सकुशल महाराष्ट्र छुड़वाया|

ऐसी नींव और दुर्दांत दुःसाहस की परिपाटी रख के गया था वो सिंह-सूरमा कि आगे चल 1805 में जिनके राज में सूरज ना छिपने की कहावतें चलती थी उन अंग्रेजों को आपके वंशज महाराजा रणजीत सिंह (हमारे यहाँ दो रणजीत हुए हैं, एक ये वाले और दूसरे पंजाबकेसरी महाराज रणजीत सिंह) ने 1-2 नहीं बल्कि पूरी 13 बार पटखनी दी थी और इतना खून बहाया था गौरों का कि:

“हुई मसल मशहूर विश्व में, आठ फिरंगी, नौ गौरे!

लड़ें किले की दीवारों पर, खड़े जाट के दो छोरे!”

और क्योंकि इस भिड़ंत ने अंग्रेजों के इतने शव ढहाये थे कि कलकत्ते में बैठी अंग्रेजन लेडियां, शौक मनाती-मनाती अपने आँसू पोंछना भी भूल गई थी| उनका विलाप करना और शोक-संतप्त होना पूरे देश में इतना चर्चित हुआ था कि कहावत चली कि:

“लेडी अंग्रेजन रोवैं कलकत्ते में”।

आपने कभी देखा हो तो दोनों रणजीतों का जिक्र आज तलक भी जाटों के यहां जब ब्याह के वक्त लड़के को बान बिठाया जाता है तो निम्न गीत गा के किया जाता है:

“बाज्या हो नगाड़ा म्हारे रणजीत का!”

जी हाँ, यह नगाड़ा वाकई में बाजा था, जिसने अंग्रेजों का भ्रम तोड़ के रख दिया था|

महाराजा सूरजमल का जन्म 13 फरवरी 1707 में हुआ. यह इतिहास की वही तारीख है, जिस दिन हिन्दुस्तान के बादशाह औरंगजेब की मृत्यु हुई थी. मुगलों के आक्रमण का मुंह तोड़ जवाब देने में उत्तर भारत में जिन राजाओं का विशेष स्थान रहा है, उनमें राजा सूरजमल का नाम बड़े ही गौरव के साथ लिया जाता है. उनके जन्म को लेकर यह लोकगीत काफ़ी प्रचलित है.

‘आखा’ गढ गोमुखी बाजी, माँ भई देख मुख राजी.

धन्य धन्य गंगिया माजी, जिन जायो सूरज मल गाजी.

भइयन को राख्यो राजी, चाकी चहुं दिस नौबत बाजी.’।

वह राजा बदनसिंह के पुत्र थे. महाराजा सूरजमल कुशल प्रशासक, दूरदर्शी और कूटनीति के धनी सम्राट थे. सूरजमल किशोरावस्था से ही अपनी बहादुरी की वजह से ब्रज प्रदेश में सबके चहेते बन गये थे. सूरजमल ने सन 1733 में भरतपुर रियासत की स्थापना की थी. 1753 तक महाराजा सूरजमल ने दिल्ली और फिरोजशाह कोटला तक अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ा लिया था. इस बात से नाराज़ होकर दिल्ली के नवाब गाजीउद्दीन ने सूरजमल के खिलाफ़ मराठा सरदारों को भड़का दिया. मराठों ने भरतपुर पर चढ़ाई कर दी. उन्होंने कई महीनों तक कुम्हेर के किले को घेर कर रखा. मराठा इस आक्रमण में भरतपुर पर तो कब्ज़ा नहीं कर पाए, बल्कि इस हमले की कीमत उन्हें मराठा सरदार मल्हारराव के बेटे खांडेराव होल्कर की मौत के रूप में चुकानी पड़ी. कुछ समय बाद मराठों ने सूरजमल से सन्धि कर ली।

लोहागढ़ किला:-

सूरजमल ने अभेद लोहागढ़ किले का निर्माण करवाया था, जिसे अंग्रेज 13 बार आक्रमण करके भी भेद नहीं पाए. मिट्टी के बने इस किले की दीवारें इतनी मोटी बनाई गयी थी कि तोप के मोटे-मोटे गोले भी इन्हें कभी पार नहीं कर पाए. यह देश का एकमात्र किला है, जो हमेशा अभेद रहा.।

तत्कालीन समय में सूरजमल के रुतबे की वजह से जाट शक्ति अपने चरम पर थी. सूरजमल से मुगलों और मराठों ने कई मौको पर सामरिक सहायता ली. आगे चलकर किसी बात पर मनमुटाव होने की वजह से सूरजमल के सम्बन्ध मराठा सरदार सदाशिव भाऊ से बिगड़ गए थे..

उदार प्रवृति के धनी

पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों का संघर्ष अहमदशाह अब्दाली से हुआ. इस युद्ध में हजारों मराठा योद्धा मारे गए. मराठों के पास रसद सामग्री भी खत्म चुकी थी. मराठों के सम्बन्ध अगर सूरजमल से खराब न हुए होते, तो इस युद्ध में उनकी यह हालत न होती. इसके बावजूद सूरजमल ने अपनी इंसानियत का परिचय देते हुए, घायल मराठा सैनिकों के लिए चिकित्सा और खाने-पीने का प्रबन्ध किया.

भरतपुर रियासत का विस्तार:-

उस समय भरतपुर रियासत का विस्तार सूरजमल की वजह से भरतपुर के अतिरिक्त धौलपुर, आगरा, मैनपुरी, अलीगढ़, हाथरस, इटावा, मेरठ, रोहतक, मेवात, रेवाड़ी, गुडगांव और मथुरा तक पहुंच गया था. वजीर सफदरजंग के शत्रु मीरबख्शी गाजीउद्दीन खां के नेतृत्व में मराठा-मुगल-राजपूतों की सम्मिलित शक्ति सन् 1754 में सूरजमल के छोटे किले कुम्हेर तक को भी नहीं जीत पाई। सन् 1757 में नजीबुद्दौला द्वारा आमंत्रित अब्दाली भी अपने अमानवीय नरसंहार से सूरजमल की शक्ति को ध्वस्त नहीं कर सका। महज 56 वर्ष के जीवन काल में इन्होंने आगरा और हरियाणा पर विजय प्राप्त करके अपने राज्य का विस्तार ही नहीं किया बल्कि प्रशासनिक ढाँचे में भी उल्लेखनीय बदलाव किये।

युद्ध के मैदान में ही मिली इस वीर को वीरगति:-

हर महान योद्धा की तरह महाराजा सूरजमल को भी वीरगति का सुख समरभूमि में प्राप्त हुआ. 25 दिसम्बर 1763 को नवाब नजीबुद्दौला के साथ हिंडन नदी के तट पर हुए युद्ध में सूरजमल वीरगति को प्राप्त हुए. उनकी वीरता, साहस और पराक्रम का वर्णन सूदन कवि ने ‘सुजान चरित्र’ नामक रचना में किया है.

भारत के इतिहास को गौरवमयी बनाने का श्रेय सूरजमल जैसे निर्भीक अजय वीरो को ही जाता हैं।

या तो हरदौल को छोड़, वर्ना दिल्ली छोड़”:

हरदौल को मुग़ल बादशाह की कैद से छुड़वाने का किस्सा इस प्रकार है:

दिल्ली मुग़ल दरबार के एक ब्राह्मण दरबारी की बेटी हरदौल को (उसकी माँ की पुकार पर) मुग़ल बादशाह की कैद से छुड़वाने हेतु, महाराजा सूरजमल ने दिल्ली के बादशाह अहमदशाह को कहलवाया कि, “या तो हरदौल को छोड़, वर्ना दिल्ली छोड़!”

अहमदशाह ने उल्टा संदेशा भेजा, “सूरजमल से कहना कि जाटनी भी साथ ले आये,वो हमसे  पंडितानी तो क्या छुड़वाएगा!”

इस पर लोहागढ के राजदूत वीरपाल गुर्जर वहीँ बिफर पड़े और वीरगति को प्राप्त होते-होते कह गए, “तू तो क्या जाटनी लैगो, पर तेरी नानी याद दिला जैगो, वो पूत जाटनी को जायो है।”

इस पर सूरजमल महाराज ललकार उठे, “अरे आवें हो लोहागढ़ के जाट, और दिल्ली की हिला दो चूल और पाट!”

और जा गुड़गांव में डेरा डाल, बादशाह को संदेश पहुंचवाया, “बादशाह को कहो अपनी बेटी की इज्जत बचाने को जाट सूरमे आये हैं, और साथ में जाटनी (महारानी हिण्डौली) को भी लाये हैं, अब देखें वो जाटनी ले जाता है या हमारी बेटी को वापिस देने खुद घुटनों के बल आता है।”

और मुग़ल सेना पर महाराजा सूरजमल का कहर ऐसा अफ़लातून बन कर टूटा कि मुग़ल कराह उठे:

तीर चलें,तलवारें चलें, चलें कटारें इशारों तैं,

अल्लाह मियां भी बचा नहीं सकदा, जाट भरतपुर आळे तैं।

और इस प्रकार दिल्ली बादशाह ने ब्राह्मण की बेटी भी वापिस करी और एक महीने तक जाट महाराज की मेहमानवाजी भी करी।

पूरा किस्सा इस लिंक से पढ़ें: http://www.nidanaheights.net/images/PDF/aflatoon-maharaja-surajmal-lohagarh.pdf

जींद की धरती के दो दुःसाहसी योद्धाओं की अमर-गाथा  जींद की धरती के दो दुःसाहसी योद्धाओं की अमर-गाथा Jind 437x350

जींद की धरती के दो दुःसाहसी योद्धाओं की अमर-गाथा

हमारे जुलाना विधानसभा क्षेत्र का एक महत्त्वपूर्ण और सबसे बड़ा गाँव है लजवाना कलां, देखने में आम दिखने वाला यह बड़ा गाँव एक बड़ा इतिहास समाहित कर बैठा है। जब इस इतिहास को खोजने का प्रयास किया तो ह्रदय गौरवान्वित हो उठा। आज इस बड़े और महत्त्वपूर्ण गाँव में सभी जातियों के लोग बसते हैं और इनका भाईचारा एक मिसाल है। इस अमर कथा को मैंने जाटलैंड वेबसाईट और मेरे प्रिय फूल कुमार मलिक की वेबसाईट निडाना हाइट्स से खोज कर निकाला है। यह कथा 1852 की है जब इन अमर योद्धाओं ने जींद, पटियाला और नाभा की रियासतों के खिलाफ जंग लड़ी जिसके बाद पटियाला में दर्दीले गीत बने कि

लजवाने, तेरा नाश जाइयो, तैने बड़े पूत खपाए“.

आइये पढ़ें दलाल खाप के वीरवर दादा नम्बरदार चौधरी भूरा सिंह दलाल और वीरवर दादा नम्बरदार चौधरी निघांईया दलाल के अमर-अमिट-ओजस्वी जौहर की कहानी

जिला रोहतक के पश्चिम में (जहाँ रोहतक की सीमा समाप्त होकर जीन्द की सीमा प्रारम्भ होती है), रोहतक से 25 मील पश्चिम और पटियाला संघ के जीन्द शहर से 15 मील पूर्व में “लजवाना” नाम का प्रसिद्ध गांव है । सौ साल पहले उस गांव में ‘दलाल’ गोत के जाट बसते थे । गांव काफी बड़ा था । गांव की आबादी पांच हजार के लगभग थी । हाट, बाजार से युक्त गाँव धन-धान्य पूर्ण था । गांव में 13 नम्बरदार थे । नम्बरदारों के मुखिया भूरा और तुलसीराम नाम के दो नम्बरदार थे । तुलसीराम नम्बरदार की स्त्री का स्वर्गवास हो चुका था । तुलसी रिश्ते में भूरा का चाचा लगता था । दोनों अलग-अलग कुटुम्बों के चौधरी थे । भूरे की इच्छा के विरुद्ध तुलसी ने भूरे की चाची को लत्ता (करेपा कर लिया) उढ़ा लिया जैसा कि जाटों में रिवाज है । भूरा के इस सम्बंध के विरुद्ध होने से दोनों कुटुम्बों में वैमनस्य रहने लगा ।

समय बीतने पर सारे नम्बरदार सरकारी लगान भरने के लिये जीन्द गये । वहाँ से अगले दिन वापिसी पर रास्ते में बातचीत के समय भोजन की चर्चा चल पड़ी । तुलसी नम्बरदार ने साथी नम्बरदारों से अपनी नई पत्*नी की प्रशंसा करते हुए कहा कि “साग जैसा स्वाद (स्वादिष्ट) म्हारे भूरा की चाची बणावै सै, वैसा और कोई के बणा सकै सै ?” भूरा नम्बरदार इससे चिड़ गया । उस समय तक रेल नहीं निकली थी, सभी नम्बरदार घर पैदल ही जा रहे थे । भूरा नम्बरदार ने अपने सभी साथी पीछे छोड़ दिये और डग बढ़ाकर गांव में आन पहुंचा । आते ही अपने कुटुम्बी जनों से अपने अपमान की बात कह सुनाई । अपमान से आहत हो, चार नौजवानों ने गांव से जीन्द का रास्ता जा घेरा । गांव के नजदीक आने पर सारे नम्बरदार फारिग होने के लिए जंगल में चले गए । तुलसी को हाजत न थी, इसलिए वह घर की तरफ बढ़ चला । रास्ता घेरने वाले नवयुवकों ने गंडासों से तुलसी का काम तमाम कर दिया और उस पर चद्दर उढ़ा गांव में जा घुसे । नित्य कर्म से निवृत्त हो जब बाकी के नम्बरदार गांव की ओर चले तो रास्ते में उन्होंने चद्दर उठाकर देखा तो अपने साथी तुलसीराम नम्बरदार को मृतक पाया । गांव में आकर तुलसी के कत्ल की बात उसके छोटे भाई निघांईया को बताई । निघांईया ने जान लिया कि इस हत्या में भूरा का हाथ है । पर बिना विवाद बढ़ाये उसने शान्तिपूर्वक तुलसी का दाह कर्म किया तथा समय आने पर मन में बदला लेने की ठानी ।

कुछ दिनों बाद रात के तीसरे पहर तुलसीराम के कातिल नौजवानों को निघांईया नम्बरदार (भाई की मृत्यु के बाद निघांईया को नम्बरदार बना दिया गया था) के किसी कुटुम्बीजन ने तालाब के किनारे सोता देख लिया और निघांईया को इसकी सूचना दी । चारों नवयुवक पशु चराकर आये थे और थके मांदे थे । बेफिक्री से सोए थे । बदला लेने का सुअवसर जान निघांईया के कुटुम्बीजनों ने चारों को सोते हुए ही कत्ल कर दिया । प्रातः ही गांव में शोर मच गया और भूरा भी समझ गया कि यह काम निघांईया का है । उसने राजा के पास कोई फरियाद नहीं की क्योंकि जाटों में आज भी यही रिवाज चला आता है कि वे खून का बदला खून से लेते हैं । अदालत में जाना हार समझते हैं । जो पहले राज्य की शरण लेता है वह हारा माना जाता है और फिर दोनों ओर से हत्यायें बन्द हो जाती हैं । इस तरह दोनों कुटुम्बों में आपसी हत्याओं का दौर चल पड़ा ।

उन्हीं दिनों महाराज जीन्द (स्वरूपसिंह जी) की ओर से जमीन की नई बाँट (चकबन्दी) की जा रही थी । उनके तहसीलदारों में एक वैश्य तहसीलदार बड़ा रौबीला था । वह बघरा का रहने वाला था और उससे जीन्द का सारा इलाका थर्राता था । यह कहावत बिल्कुल ठीक है कि –

 

बणिया हाकिम, ब्राह्मण शाह, जाट मुहासिब, जुल्म खुदा ।
 

अर्थात् जहाँ पर वैश्य शासक, ब्राह्मण साहूकार (कर्ज पर पैसे देने वाला) और जाट सलाहकार (मन्त्री आदि) हो वहाँ जुल्म का अन्त नहीं रहता, उस समय तो परमेश्वर ही रक्षक है ।

तहसीलदार साहब को जीन्द के आस-पास के खतरनाक गांव-समूह “कंडेले और उनके खेड़ों” (जिनके विषय में उस प्रदेश में मशहूर है कि “आठ कंडेले, नौ खेड़े, भिरड़ों के छत्ते क्यों छेड़े”) की जमीन के बंटवारे का काम सौंपा गया । तहसीलदार ने जाते ही गाँव के मुखिया नम्बरदारों और ठौळेदारों को बुला कर डांट दी कि “जो अकड़ा, उसे रगड़ा” । सहमे हुए गांव के चौधरियों ने तहसीलदार को ताना दिया कि – ऐसे मर्द हो तो आओ ‘लजवाना’ जहाँ की धरती कटखानी है (अर्थात् मनुष्य को मारकर दम लेती है) । तहसीलदार ने इस ताने (व्यंग) को अपने पौरुष का अपमान समझा और उसने कंडेलों की चकबन्दी रोक, घोड़ी पर सवार हो, “लजवाना” की तरफ कूच किया । लजवाना में पहुंच, चौपाल में चढ़, सब नम्बरदारों और ठौळेदारों को बुला उन्हें धमकाया । अकड़ने पर सबको सिरों से साफे उतारने का हुक्म दिया । नई विपत्ति को सिर पर देख नम्बरदारों और गांव के मुखिया, भूरा व निघांईया ने एक दूसरे को देखा । आंखों ही आंखों में इशारा कर, चौपाल से उतर सीधे मौनी बाबा के मंदिर में जो कि आज भी लजवाना गांव के पूर्व में एक बड़े तालाब के किनारे वृक्षों के बीच में अच्छी अवस्था में मौजूद है, पहुंचे और हाथ में पानी ले आपसी प्रतिशोध को भुला तहसीलदार के मुकाबले के लिए प्रतिज्ञा की । मन्दिर से दोनों हाथ में हाथ डाले भरे बाजार से चौपाल की तरफ चले । दोनों दुश्मनों को एक हुआ तथा हाथ में हाथ डाले जाते देख गांव वालों के मन आशंका से भर उठे और कहा “आज भूरा निघांईया एक हो गये, भलार (भलाई) नहीं है ।” उधर तहसीलदार साहब सब चौधरियों के साफे सिरों से उतरवा उन्हें धमका रहे थे और भूरा तथा निघांईया को फौरन हाजिर करने के लिए जोर दे रहे थे । चौकीदार ने रास्ते में ही सब हाल कहा और तहसीलदार साहब का जल्दी चौपाल में पहुंचने का आदेश भी कह सुनाया । चौपाल में चढ़ते ही निघांईया नम्बरदार ने तहसीलदार साहब को ललकार कर कहा, “हाकिम साहब, साफे मर्दों के बंधे हैं, पेड़ के खुंडों (स्तूनों) पर नहीं, जब जिसका जी चाहा उतार लिया ।” तहसीलदार बाघ की तरह गुर्राया । दोनों ओर से विवाद बढ़ा । आक्रमण, प्रत्याक्रमण में कई जन काम आये । छूट, छुटा करने के लिए कुछ आदमियों को बीच में आया देख भयभीत तहसीलदार प्राण रक्षा के लिए चौपाल से कूद पड़ौस के एक कच्चे घर में जा घुसा । वह घर बालम कालिया जाट का था । भूरा, निघांईया और उनके साथियों ने घर का द्वार जा घेरा । घर को घिरा देख तहसीलदार साहब बुखारी में घुसे । बालम कालिया के पुत्र ने तहसीलदार साहब पर भाले से वार किया, पर उसका वार खाली गया । पुत्र के वार को खाली जाता देख बालम कालिया साँप की तरह फुफकार उठा और पुत्र को लक्ष्य करके कहने लगा–

 

जो जन्मा इस कालरी, मर्द बड़ा हड़खाया ।
 

तेरे तैं यो कारज ना सध, तू बेड़वे का जाया ॥
अर्थात् – जो इस लजवाने की धरती में पैदा होता है, वह मर्द बड़ा मर्दाना होता है । उसका वार कभी खाली नहीं जाता । तुझसे तहसीलदार का अन्त न होगा क्योंकि तेरा जन्म यहां नहीं हुआ, तू बेड़वे में पैदा हुआ था । (बेड़वा लजवाना गांव से दश मील दक्षिण और कस्बा महम से पाँच मील उत्तर में है । अकाल के समय लजवाना के कुछ किसान भागकर बेड़वे आ रहे थे, यहीं पर बालम कालिए के उपरोक्त पुत्र ने जन्म ग्रहण किया था )।

भाई को पिता द्वारा ताना देते देख बालम कालिए की युवति कन्या ने तहसीलदार साहब को पकड़कर बाहर खींचकर बल्लम से मार डाला ।

मातहतों द्वारा जब तहसीलदार के मारे जाने का समाचार महाराजा जीन्द को मिला तो उन्होंने “लजवाना” गाँव को तोड़ने का हुक्म अपने फौज को दिया । उधर भूरा-निघांईया को भी महाराजा द्वारा गाँव तोड़े जाने की खबर मिल चुकी थी । उन्होंने राज-सैन्य से टक्कर लेने के लिए सब प्रबन्ध कर लिये थे । स्*त्री-बच्चों को गांव से बाहर रिश्तेदारियों में भेज दिया गया । बूढ़ों की सलाह से गाँव में मोर्चे-बन्दी कायम की गई । इलाके की पंचायतों को सहायता के लिए चिट्ठी भेज दी गई । वट-वृक्षों के साथ लोहे के कढ़ाये बांध दिये गए जिससे उन कढ़ाओं में बैठकर तोपची अपना बचाव कर सकें और राजा की फौज को नजदीक न आने दें । इलाके के सब गोलन्दाज लजवाने में आ इकट्ठे हुए । महाराजा जीन्द की फौज और भूरा-निघांईया की सरदारी में देहात निवासियों की यह लड़ाई छः महीने चली । ब्रिटिश इलाके के प्रमुख चौधरी दिन में अपने-अपने गांवों में जाते, सरकारी काम-काज से निबटते और रात को लजवाने में आ इकट्ठे होते । अगले दिन होने वाली लड़ाई के लिए सोच विचार कर प्रोग्राम तय करते । गठवालों के चौधरी रोज झोटे में भरकर गोला बारूद भेजते थे । राजा की शिकायत पर अंग्रेजी सरकार ने वह भैंसा पकड़ लिया ।

जब महाराजा जीन्द (सरदार स्वरूपसिंह) किसी भी तरह विद्रोहियों पर काबू न पा सके तो उन्होंने ब्रिटिश फौज को सहायता के लिए बुलाया । ब्रिटिश प्रभुओं का उस समय देश पर ऐसा आतंक छाया हुआ था कि तोपों के गोलों की मार से लजवाना चन्द दिनों में धराशायी कर दिया गया । भूरा-निघांईया भाग कर रोहतक जिले के अपने गोत्र बन्धुओं के गाँव “चिड़ी” में आ छिपे । उनके भाइयों ने उन्हें तीन सौ साठ के चौधरी श्री दादा गिरधर के पास आहूलाणा भेजा । (जिला रोहतक की गोहाना तहसील में गोहाना से तीन मील पश्चिम में गठवाला गौत के जाटों का प्रमुख गांव आहूलाणा है । गठवालों के हरयाणा प्रदेश में 360 गांव हैं । कई पीढ़ियों से इनकी चौधर आहूलाणा में चली आती है । अपने प्रमुख को ये लोग “दादा” की उपाधि से विभूषित करते हैं । इस वंश के प्रमुखों ने कभी कलानौर की नवाबी के विरुद्ध युद्ध जीता था । स्वयं चौधरी गिरधर ने ब्रिटिश इलाके का जेलदार होते हुए भी लजवाने की लड़ाई तथा सन् 1857 के संग्राम में प्रमुख भाग लिया था) ।

जब ब्रिटिश रेजिडेंट का दबाव पड़ा तो डिप्टी कमिश्नर रोहतक ने चौ. गिरधर को मजबूर किया कि वे भूरा-निघांईया को महाराजा जीन्द के समक्ष उपस्थित करें । निदान भूरा-निघांईया को साथ ले सारे इलाके के मुखियों के साथ चौ. गिरधर जीन्द राज्य के प्रसिद्ध गांव कालवा (जहां महाराजा जीन्द कैम्प डाले पड़े थे), पहुंचे तथा राजा से यह वायदा लेकर कि भूरा-निघांईया को माफ कर दिया जावेगा, महाराजा जीन्द ने गिरधर से कहा – मर्द दी जबान, गाड़ी दा पहिया, टुरदा चंगा होवे है”। दोनों को राजा के रूबरू पेश कर दिया गया । माफी मांगने व अच्छे आचरण का विश्वास दिलाने के कारण राजा उन्हें छोड़ना चाहता था, पर ब्रिटिश रेजिडेंट के दबाव के कारण राजा ने दोनों नम्बरदारों (भूरा व निघांईया) को फांसी पर लटका दिया ।

आज बसे हुए हैं सात लजवाने: दोनों नम्बरदारों को 1856 के अन्त में फांसी पर लटकवा कर राजा ने ग्राम निवासियों को ग्राम छोड़ने की आज्ञा दी। लोगों ने लजवाना खाली कर दिया और चारों दिशाओं में छोटे-छोटे गांव बसा लिए जो आज भी “सात लजवाने” के नाम से प्रसिद्ध हैं। मुख्य लजवाना से एक मील उत्तर-पश्चिम में “भूरा” के कुटुम्बियों ने “चुडाली” नामक गांव बसाया। भूरा के बेटे का नाम मेघराज था।

मुख्य लजवाना ग्राम से ठेठ उत्तर में एक मील पर निघांईया नम्बरदार के वंशधरों ने “मेहरड़ा” नामक गांव बसाया।

जिस समय कालवे गांव में भूरा-निघांईया महाराजा जीन्द के सामने हाजिर किये गए थे, तब महाराजा साहब ने दोनों चौधरियों से पूछा था कि “क्या तुम्हें हमारे खिलाफ लड़ने से किसी ने रोका नहीं था?” निघांईया ने उत्तर दिया – मेरे बड़े बेटे ने रोका था। सूरजभान उसका नाम था। राजा ने निघांईया की नम्बरदारी उसके बेटे को सौंप दी। अभी 15 साल पहले निघांईया के पोते दिवाना नम्बरदार ने नम्बरदारी से इस्तीफा दिया है। इसी निघांईया नम्बरदार के छोटे पुत्र की तीसरी पीढ़ी में चौ. हरीराम थे जो रोहतक के दस्युराज ‘दीपा’ द्वारा मारे गए। इन्हीं हरीराम के पुत्र दस्युराज हेमराज उर्फ ‘हेमा’ को (जिसके कारण हरयाणे की जनता को पुलिस अत्याचारों का शिकार होना पड़ा था और जिनकी चर्चा पंजाब विधान सभा, पंजाब विधान परिषद और भारतीय संसद तक में हुई थी), विद्रोहात्मक प्रवृत्तियाँ वंश परम्परा से मिली थीं और वे उनके जीवन के साथ ही समाप्त हुईं।

लजवाने को उजाड़ महाराजा जीन्द (जीन्द शहर) में रहने लगे । पर पंचायत के सामने जो वायदा उन्होंने किया था उसे वे पूरा न कर सके, इसलिए बड़े बेचैन रहने लगे । ज्योतिषियों ने उन्हें बताया कि भूरा-निघांईया के प्रेत आप पर छाये रहते हैं । निदान परेशान महाराजा ने जीन्द छोड़ संगरूर में नई राजधानी जा बसाई । स्वतंत्रता के बाद 1947 में सरदार पटेल ने रियासतें समाप्त कर दीं । महाराजा जीन्द के प्रपौत्र जीन्द शहर से चन्द मील दूर भैंस पालते हैं और दूध की डेरी खोले हुए हैं । समय बड़ा बलवान है । सौ साल पहले जो लड़े थे, उन सभी के वंश नामशेष होने जा रहे हैं । समय ने राव, रंक सब बराबर कर दिये हैं । समय जो न कर दे वही थोड़ा है । समय की महिमा निराली है ।

 

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(This article was written long ago and was first published in April 1986 ) उद्धरण (Excerpts from): “देशभक्तों के बलिदान”

पृष्ठ – 321-325 (द्वितीय संस्करण, 2000 AD)

सम्पादक – स्वामी ओमानन्द सरस्वती (Swami Omanand Saraswati)

(इस लेख के लेखक – श्री कपिलदेव शास्त्री)

प्रकाशक – हरयाणा साहित्य संस्थान, गुरुकुल झज्जर, जिला झज्जर (हरयाणा)

Note:

  • भूरा तथा निघाइया नम्बरदार – लजवाना (हरयाणा) गांव के दलाल गोत्री जाट थे , जिन्होंने राजा जीन्द से 6 महीने तक छापामार युद्ध किया था

Important Reference: Jat History by Thakur Deshraj

आजादी की 72वीं सालगिरह मुबारक

72 वाँ स्वतन्त्रता दिवस

आजाद मानसिकता और गुलाम देश से मुक्ति पा कर गुलाम मानसिकता और आजाद देश की 72 वीं सालगिरह की सबको बधाई. एक देश के रूप में भारत को बने आज 71 साल हो गये हैं. इस बीच हम सुई तक ना बना सकने वाले देश से मिसाइल बनाने वाले देश तक पंहुचे हैं. हम और आगे भी जायेंगे. पर क्या यह वह सहर है जिसके लिये हम चले थे? फैज ने आजादी पर एक बेहद उम्दा ग़ज़ल लिखी थी. उसे यहाँ पर उद्धृत करना अत्यंत आवश्यक है:

यह दाग़-दाग़ उजाला, यह शब गज़ीदा सहर
वो इंतज़ार था जिसका यह वो सहर तो नहीं
यह वो सहर तो नहीं जिसकी आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं

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चले चलो के ये मंजिल अभी नहीं आई

शहीद भगत सिंह ने अपने विचारों में कहा है कि वे देश नहीं अपितु व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के लिए लड़ रहे हैं. जब तक विचारों की आजादी नहीं होगी तब तक सीमाओं की आजादी बेमानी है. राजनैतिक स्वतन्त्रता हमें मिली; हम डोमिनियन स्टेट से आज एक पूर्णतया स्वतंत्र राज्य बन गये हैं. हम किसी राज के अधीन नहीं; हम पांच वर्ष में अपनी स्वयम की सरकार चुनते हैं. हमारे सभी किये गये कार्यों की जिम्मेदारी हमारी है. यह देश हम स्वयम चलाते हैं और इसकी सभी सफलताओं और विफलताओं के लिए हम स्वयम जिम्मेदार हैं. धर्म के आधार पर दो देश बनना; लगभग साढ़े पांच सौ रियासतों ने दो राष्ट्रों के रूप में अपनी पहचान आज से 71 वर्ष पहले पाई थी. राजशाही से लोकतंत्र तक का यह सफर अत्यंत दुष्कर रहा.

70 के दशक में एक अच्छी फीचर फिल्म आई थी जिसका नाम था “हम हिन्दुस्तानी”. सुनील दत्त की इस फिल्म का एक गीत राजनैतिक पार्टियों की जान है. “छोड़ों कल की बातें; कल की बात पुरानी” नामक इस गीत में एक पैरा है जिसमें लिखा है:

“आज पुरानी ज़ंजीरों को तोड़ चुके हैं

क्या देखें उस मंज़िल को जो छोड़ चुके हैं

चांद के दर पर जा पहुंचा है आज ज़माना

नए जगत से हम भी नाता जोड़ चुके हैं

नया खून है नई उमंगें, अब है नई जवानी”

आज यह गीत फिर से याद आया. “जंजीरें” यह शब्द महत्त्वपूर्ण है; जंजीरे कई प्रकार की होती हैं; कुछ जंजीरें सामाजिक होती हैं; कुछ राजनैतिक हो सकती हैं तो कुछ धार्मिक होती हैं. फलां से ब्याह नहीं करना; फलां गलत है; फला सही है यह जंजीरें सामाजिक हैं. फलां व्यक्ति इसलिए गलत है कि वह फलां धर्म को फ़ॉलो करता है यह धार्मिक जंजीरें हैं तो फलां व्यक्ति फलां राजनीतिक पार्टी से जुड़ा है अतः वह सही है अथवा गलत है तो ये राजनैतिक जंजीरे हैं. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस मानते थे कि भारत की स्थिति ऐसी नहीं कि उसे पूर्ण स्वतन्त्रता दी जाए; उसे आंशिक स्वतन्त्रता देकर एक कठोर तानशाह की जरूरत है. यह बात उन्होंने आल इण्डिया रेडियो को एक भाषण में कही थी.

हम एक ऐसे देश के बाशिंदे हैं जहाँ हम नैतिक रूप से अत्यंत बलवान हैं पर हमारी नैतिकता केवल इस बात से खत्म हो जाति है कि हमारे बच्चे किसी अन्य जाति में ब्याहे जाते हैं. हमारी नैतिकता का पैमाना बहुत खतरनाक है; भारत में गूगल पर सबसे ज्यादा सर्च करने वाली सेलिब्रिटी सन्नी लियोन है पर उसके ऊपर कोई फिल्म बनती है तो हमारी नैतिकता के ऊपर एक बहुत बड़ा कुठाराघात होता है. हम मन्दिर और मस्जिद के नाम पर लड़ भी सकते हैं और मर भी सकते हैं. आधा देश तो केवल इस बात पर कन्फ्यूज है कि वह पहले देश के लिए लड़े अथवा धर्म के लिए या फिर मानवता के लिए लड़े. धर्म को तिलांजली देने वाला यहाँ वामपंथी और यहाँ के सबसे बड़े धर्म हिन्दू धर्म (जिसका नाम किसी भी धर्म ग्रन्थ में नहीं आता है) की आलोचना करने वाला हर एक पुरुष मुल्ला (मुस्लिम धर्म का समर्थक) माना जाता है. हम मस्जिद तोड़ने के नाम पर जानें ले सकते हैं; धर्म के नाम पर देश की सीमाओं का बंटवारा कर सकते हैं. हम इमानदार हैं लेकिन ट्रेफिक चालान के समय पर जान पहचान वाले की सिफारिश ढूंढ सकते हैं. हमें ईमानदार सरकार चाहिए लेकिन अपने बेटे का रोल नम्बर किसी जानकार को अथवा पैसा लेने वाले को देना पसंद करते हैं. हम भ्रष्टाचार को कलंक मानते हैं लेकिन फिर भी नैतिक और आर्थिक रूप से भ्रष्ट हैं. हमें धर्म के नाम पर क़ानून चाहिए; हम आधुनिक संविधान की जगह सड़ी गली शरियत की व्यवस्था को लागू करना चाहते हैं. तिलक, पगड़ी, टोपी हमारी नैतिकता की पहचान है. हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है लेकिन गंगा के अंदर सबसे पहले हम गंदगी डालेंगे फिर उसकी सफाई के नाम पर 75 सौ करोड़ रूपये खा जायेंगे. फिर भी मरने मारने को तैयार हो जायेंगे. हम मानसिक तौर पर कहीं धर्म, कहीं व्यवस्था, कहीं जाति तो कहीं राजनैतिक सोच के गुलाम हैं. स्वतंत्र विचार पर पहले भी हम फांसी पर लटकते थे और आज भी लटकते हैं. गांधी से हमें इसलिए दिक्कत हुई की उसने कथित तौर पर हिन्दू विरोधी कार्य किया तो अन्धविश्वास से मुक्ति दिलाने के लिए कार्य करने वाले आज गोली के शिकार बनते हैं. एक समय था जब प्लूटो को इस बात के लिए मुकद्दमे का सामना करना पडा था कि उसने कहा था कि पृथ्वी गोल है तो आज कुछ वैज्ञानिक रूप से विरोधाभासों का विरोध करने पर हत्या हो जाती है. हम आज भी यह नहीं समझ पाए हैं कि हमें तवज्जो किसे देनी चाहिए राष्ट्रवाद को; धर्म को अथवा मानवता को? हम राष्ट्रवाद की सही और सच्ची भावना से भी मरहूम है. समस्त राष्ट्र के नागरिको का सम्मान और उनकी रक्षा ही तो राष्ट्रवाद है. पर क्या यह भावना हम ला पाए हैं? सेलेक्टिव राष्ट्रवाद को उठा गर्व महसूस करने वाले ग्रुप्स बाकियों को देशद्रोही अथवा पाकिस्तानी बताने में भी गुरेज नहीं करते. इस देश के सम्मान के लिए दिन रात जद्दोजहद करने वाले लोगों को भी सेलेक्टिव राष्ट्रवाद में देशद्रोही बता दिया जाता है. स्वयम को पढ़े लिखे बताने वाले लोग आज भी दूसरी जाति अथवा धर्म में शादी तक करने पर मरने और मारने पर उतारू हो जाते हैं. सालों साल से चले आ रहे इस कार्य के बीच हम सच में आगे भी बढ़े हैं. हम सोफ्टवेयर में वर्ल्ड लीडर हैं; हम एक बहुत बड़ा अंतर्राष्ट्रीय बाजार हैं; हम चाँद तक लगभग पंहुच ही गये हैं; हम परमाणू देश हैं; पूर्णतया साधन सम्पन्न हमारी सेना विश्व की चुनिन्दा मजबूत सेनाओं में से एक है. हमारे आइआइटी और आईआईएम विश्व में धाक रखते हैं. सीमित संसाधनों के बावजूद भी हम अनाज के मामले में पूर्णतया स्वनिर्भर हैं. लेकिन अभी बहुत कुछ करना बाकि है. मंजिल अभी बहुत दूर है. मैं धर्म/मजहब आदि का घोर विरोधी हूँ लेकिन हमेशा सोचता हूँ कि गर सभी इन सीमाओं को तोड़ एक साथ रहें तो यह देश सच में बहुत खूबसूरत है. हम शायद आने वाले खतरों को देख और समझ नहीं पा रहे हैं. यह विश्व आतंकवाद से प्रताड़ित हो धीरे धीरे तीसरे विश्वयुद्ध की ओर बढ़ रहा है. हमारे संसाधन धीरे धीरे कम हो रहे हैं. प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता कम हो रही है; अन्नदाता अपने सीमित संसाधनों के कारण धीरे धीरे कमजोर हो रहा है. जंग सीमित संसाधनों और विकास की हो; अदम गोंडवी साहब ने दो ही पंक्तियों में सार व्यक्त किया है:

छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये

हम सब मिल जुल कर रहें; मेहनत करें; स्वयम को और इस देश को आगे ले जाएँ; शिक्षा की श्रेणी में हमारा देश अग्रणी बने; हमारी सोच वैज्ञानिक हो; हम समाज के सही रूप को समझें; हम किताबी नहीं अपितु मानसिक तौर पर इमानदार हों; मेरी आज यही तमन्ना है.

जय हिन्द

वन्दे मातरम