तमन्ना आज बगीचे में अकेली घूम रही थी. सामने उसका पसंदीदा पौधा था; बेहद सुन्दर रंग वाले फूल खिलते थे उसपर. केवल एक ही समस्या थी; उसमें कांटे थे…बहुत पैने कांटे जो कभी भी चुभ सकते थे. पर तमन्ना को वह पौधा जान से प्यारा था. आज उसने फूलों से छेड़खानी की ठान ली थी. जैसे ही उसने छूने की ठानी और हाथ लगाया काँटों से उसका हाथ छिल गया. तमन्ना बेहद परेशान हुई और चली गयी. बाहर पार्क में घूमते हुए तमन्ना को एक छोटा सा पौधा बहुत अच्छा लगा. गहरी नारंगी टहनियों के साथ उस पौधे में छोटे छोटे पत्ते आये हुए थे. उन पत्तों को छेड़ने में तमन्ना को बहुत अधिक आनंद आ रहा था. तमन्ना ने उस पौधे को अपने साथ ले लिया और चल दी अपने बगीचे की तरफ. बगीचे में उस पौधे को लगा कर तमन्ना ने उसमे पहली बार पानी डाला. पौधे के पत्तों पर गिरा पानी तमन्ना को भा रहा था. उस पौधे के साथ खेलना और अठखेलियाँ करना तमन्ना का हर रोज का कार्य हो गया. पत्तों को हाथ में लेकर छेड़ना और हर रोज पानी देना. पौधा अब बड़ा हो रहा था. एक दिन उस पौधे पर सुर्ख लाल रंग का फूल निकला. फूल ऐसा कि उसे देखना अपने आप में तमन्ना के लिए बेहद सुखद अनुभव था. तमन्ना ने उस फूल को तोड़ लिया और अपने पास रख लिया. सारा दिन उस फूल के साथ खेलने में बीता. लगातार मिल रहे ध्यान से वह पौधा फूलों से घिर गया. अब तमन्ना अपने पुराने पौधे को देखती नहीं थी जिसके कारण उसके हाथ कभी छिले थे. समय बीतता गया और साथ ही उस पौधे का और तमन्ना का रिश्ता और भी पुख्ता हो गया. एक दिन तमन्ना ने देखा उसके पुराने पौधे पर आज बेहद सुंदर नारंगी फूल निकला है. उस फूल की छटा उन लाल रंग के फूलों से कही ज्यादा सुन्दर थी. आज तमन्ना ने नारंगी फूल को तोडा और अपने साथ ले गयी. दुसरे पौधे पर लगे लाल फूल के बोझ से पौधा झुक गया और शाम होते होते वह फूल मुरझा गया. तमन्ना अब अपने पुराने पौधे में पानी देती; उसके साथ खेलती. फूल आ रहे थे तो कांटे पीछे छिप गये. पर नए पौधे पर लग रहे फूल अब सूख रहे थे. उन्हें कोई न सहलाता और कोई न तोड़ता. न ही उस पौधे को पानी देता. तमन्ना के बगीचे में लगा नया पौधा अब सूखने लगा था. कुछ दिन यह सिलसिला चलता रहा. एक दिन तमन्ना सुबह उठी और अपने नए पौधे को देखने के लिए चल पड़ी. बाहर बागीचे में तमन्ना जैसे ही गयी तो देखा वह पौधा पूरी तरह से सूख चूका था. पुराने पौधे पर लगे नारंगी फूल तमन्ना का इन्तजार कर रहे थे. सुर्ख लाल फूलों का नामोनिशान मिट चूका था. न किसी ने उसके फूल ही तोड़े; न ही किसी ने इसे पानी ही दिया. तमन्ना के बागीचे का नया पौधा मुरझा चुका था. पुराने पौधे पर अब भी फूल लग रहे थे. पर अब वह पौधा नहीं बचा था जिसके फूलों से और पत्तों से तमन्ना को बहुत प्यार था कभी.
तमन्ना का फूल
बाहर किसकी है माया
एक खूबसूरत गीत है, उसकी शुरूआती पंक्तियाँ उस से भी अधिक खूबसूरत।
“जे मैं तैनूं बाहर ढूँढाँ तो भीतर कौन समाया।
जे मैं तैनूं भीतर ढूँढाँ , बाहर किस दी है माया। “इस खूबसूरत पंक्ति को हम मानव चरित्र के हर पहलू के साथ जोड़ सकते हैं। यदि आप ईश्वर को मानते तो इसे ईश्वर के साथ जोड़ेंगे; यदि किसी रूठे हुए को मनाने निकले हैं तो उसके साथ जोड़ेंगे। पर यह जुड़ेगा अवश्य। मानव जीवन एक तलाश है और इस तलाश का महत्त्वपूर्ण पहलू है कि आप किसे तलाश रहे हैं ? क्या यह तलाश अनावश्यक नहीं ? पर यदि हम तलाश नहीं करेंगे तो जीवन का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य समाप्त हो जाएगा।
“जे मैं तैनूं बाहर ढूँढाँ तो भीतर कौन समाया।
जे मैं तैनूं भीतर ढूँढाँ , बाहर किस दी है माया। “इस खूबसूरत पंक्ति को हम मानव चरित्र के हर पहलू के साथ जोड़ सकते हैं। यदि आप ईश्वर को मानते तो इसे ईश्वर के साथ जोड़ेंगे; यदि किसी रूठे हुए को मनाने निकले हैं तो उसके साथ जोड़ेंगे। पर यह जुड़ेगा अवश्य। मानव जीवन एक तलाश है और इस तलाश का महत्त्वपूर्ण पहलू है कि आप किसे तलाश रहे हैं ? क्या यह तलाश अनावश्यक नहीं ? पर यदि हम तलाश नहीं करेंगे तो जीवन का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य समाप्त हो जाएगा।
राही का तो काम है चलता ही जावे। आप जितना आगे बढ़ेंगे तलाश उतनी ही गहन हो जाएगी और साथ में आपका अभियान भी तेज हो जायेगा। चलना न छोड़ें; यह तलाश ही जीवन है।
क्या बड़ा है?
धर्म और नैतिकता में से क्या बड़ा है? यह एक बेहद गंभीर प्रश्न है जिससे मैं इस समय रूबरू हो रहा हूँ एक पुस्तक में। मैं नास्तिक हूँ या आस्तिक तो भी नैतिक हो सकता हूँ, पर धार्मिक नहीं। यदि मैं सही मायने में धार्मिक हूँ तो नैतिकता को अपने अन्दर समाहित कर लेता हूँ, पर नैतिक होने पर मेरे लिए आवश्यक नहीं कि मैं धार्मिक भी हूँ। मेरा नैतिक होना एक मजबूरी हो सकती है पर मेरा धार्मिक होना एक मजबूरी कभी भी नहीं। धर्म को किसी एक मत के साथ या एक सम्प्रदाय के साथ जोड़ कर देखना इसे छोटा बनाने जैसा है। धर्म अपने अन्दर राष्ट्रधर्म, मानवधर्म, मानवता, पवित्रता, आदर, सम्मान, ध्यान, समाधि लेकर आता है। पर नैतिकता अपने अन्दर लेकर आती है कुछ गाइड लाइंस कि यह करना नैतिक है या वह करना अनैतिक है। धर्म की कोई सीमा नहीं होती। धर्म सनातन है पर नैतिकता बदलती रहती है। आज के समय जो नैतिक है वह हजार वर्ष पहले अनैतिक रहा होगा या हो सकता है कि आने वाले समय में अनैतिक हो जाए। पर धर्म वहीँ खडा है जहाँ पहले था और आगे भी वहीँ रहेगा। धर्म कभी भी साम्प्रदायिक नहीं हो सकता, यदि वह है तो सच्चा नहीं हो सकता। धर्म एक सहिष्णुता के साथ आता है जो यह सिखाती है कि दूसरों के साथ कैसे जिया जाए। धर्म को संकीर्ण मानना अपने आप में संकीर्ण मानसिकता दिखाता है। तो धर्म क्या है ? यदि हम धर्म को नैतिकता से ऊपर रख ही देते हैं तो यह समझना आवश्यक है कि फिर धर्म क्या है ? क्या किसी एक भगवान की पूजा करना मात्र धर्म है अथवा धर्म इससे कहीं आगे चला जाता है? यदि हम भारतीय समाज को देखें तो स्वामी विवेकानंद जैसे विचारकों ने धर्म को अधिक वृहद व्याख्या दी है। यदि हम मान लें कि स्वामी जी ने हिन्दू धर्म से आगे बढ़कर मानवता का नाम लिया है अर्थात मानव धर्म! तो क्या हम यह मान लेंगे कि स्वामी जी धार्मिक नहीं थे। यह मानना बेमानी होगा। इसका मतलब यह हुआ कि धर्म किसी एक नाम से आगे है और उससे बड़ा है। यह एक मूक प्रश्न है जिसका समाज को उत्तर ढूंढना होगा।
धर्म को यदि हम छोड़ भी दें तो क्या नैतिकता काफी नहीं है जीवन को चलाने के लिए। यदि काफी है तो धर्म को आवश्यकता ही क्या है। यदि हम धर्म को अच्छे से पढने का प्रयास करें तो हमें पता चलेगा कि इसमें जो मुख्य नैतिक शिक्षाएं दी गयी हैं वे सब कुछ और नहीं अपितु नैतिक शिक्षा मात्र हैं एवं ये शिक्षाएं सभी धर्मों में एक समान पायी जाती हैं। इनके पैमाने भी समय समय पर बदलते रहते हैं। इस प्रकार एक समय पर धर्म एवं नैतिकता दोनों ही सार हीन हो जाते हैं एवं बचती है स्वतंत्रता।
जीवन की विशिष्टता
हमारे जीवन की विशिष्टता इस बात में है कि हम असंभव एवं मुश्किल परिस्थितियां का सामना किस प्रकार करते हैं। लघु बुद्धि वाला मनुष्य स्वयं को इस प्रकार की परिस्थितियों में समाप्त कर लेता है तथा स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य इस प्रकार की परिस्थितियों में स्वयं को संयमित रख जीवन यापन करता है। कहते हैं यदि रास्ता मुश्किल हो तो वह हमेशा सुन्दर मंजिलों की तऱफ ले जाता है अतः आवश्यक है कि इस प्रकार के समय को हम संयमित करके निकलें।हर मुश्किल परिस्थिति हमें कुछ सिखाने आती है तथा साथ में लाती है बहुत से नव संघर्ष जो हम उन परिस्थितियों का सामना करने के बाद करते हैं। स्थिर एवं विवेकशील बुद्धि का व्यक्ति सभी प्रकार की परिस्थितियों का समभाव से सामना कर आगे बढ़ता है। न केवल हमें आगे बढ़ने की आवश्यकता है ;अपितु आवश्यकता है कि हम आगे बढ़ते हुए अपनी बुद्धि को स्थिर रखें।
ज्ञान असत्य है
समस्त ज्ञान असत्य है एवं समस्त सत्य ज्ञान का स्वरुप है। समस्त सांसारिक ज्ञान केवल मात्र तर्क की शक्ति पर टिका है एवं जब तक वह तर्क की सीमा को पार नहीं कर देता उसे संसार ज्ञान की श्रेणी में नहीं रखता। श्री रामकृष्ण परमहँस कहते हैं कि ज्ञान विश्वास से पैदा होता है न कि तर्क से। प्रथम आपकी बुद्धि स्वीकार करेगी उस उस अनजान को उसके बाद ही ज्ञान पैदा होगा एवं जन्म लेगा। यदि बुद्धि स्वीकार करने की स्थिति में होगी ही नहीं तो ज्ञान आ ही नहीं सकता। साकार ब्रह्म अथवा निराकार ब्रह्म दोनों ही उस ज्ञान के स्वरूप हैं। श्री परमहँस भी उस ज्ञान से जन्म लेते हैं तथा श्री दयानंद भी। जहाँ एक ओर हजरत मोहम्मद उस ही ज्ञान से जन्म लेते हैं तो दूसरी ओर ओशो भी उस ज्ञान का स्वरुप मात्र है। यदि हम इन परस्पर विरोधाभासी महापुरुषों को एक तर्क की श्रेणी में रखेंगे तो हम समझ पाएंगे कि सभी का ज्ञान अधूरा है। वहीँ दूसरी ओर यदि किसी एक के ऊपर दृढ विश्वास किया जाए तो सभी पूर्ण हैं। अतः स्पष्ट है कि विश्वास कीजिये कि तर्क के परे झाँका जा सकता है। माँ भारती आप सबका मार्ग प्रशस्त करे।
स्थिर बुद्धि की आवश्यकता
दुःखेष्वनुद्विग्मनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।2/56 (गीता)
भावार्थ: जो दुःख में विचलित न हो तथा सुख में प्रसन्न नहीं होता , जो आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त है, वह स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य ही मुनि कहलाता है।
ईश्वर कहते हैं कि मुनि अर्थात मनुष्य जीवन की सर्वोच्च अवस्था केवल उसे ही प्राप्त होती है जो सुख दुःख में सम भाव तथा आसक्ति, भय एवं क्रोध से स्वयं को मुक्त रखता है। मानव जीवन के सर्वोच्च लक्ष्यों में से एक लक्ष्य इस स्थिर बुद्धि को प्राप्त करना भी है। एकाँकी जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण अवस्था वह है जहाँ हम स्थिर बुद्धि हो सभी प्रकार के विघ्नों क़ा सामना करते हैं। जीवन में आशा एवं निराशा दोनों भाव हनिकारक हैँ। केवल कर्म भाव ही एक मात्र सत्य है तथा उसपर स्वयं का आधिकार भी श्रीभगवान गीता में देते हैं। कर्मफल के ऊपर हमारा कोई भी अधिकार नहीं है; यह महत्त्वपूर्ण शिक्षा आज भी उतनी ही आवश्यक है जितनी गीता के समय प्रासंगिक थी।
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2/57 (गीता)
भावार्थ: इस भौतिक जगत में जो व्यक्ति न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न ही दुःख के प्राप्त होने पर उससे घृणा करता हैं, वह पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है।
समस्त ज्ञान इस बात में ही है क़ि सुख एवम दुःख समभाव हैं तथा प्रज्ञा अर्थात बुद्धि के लिए यह समझना आवश्यक है। इस ज्ञान को समझे बिना मनुष्य के लिए जीवन यापन सदा ही एक समस्या रहेगा।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।। 2/62 (गीता)
भावार्थ: विषयोंका निरंतर चिंतन करनेवाले पुरुषकी विषयोंमें आसक्ति हो जाती है, आसक्तिसे उन विषयोंकी कामना उत्पन्न होती है और कामनामें (विघ्न पडनेसे) क्रोध उत्पन्न होता है।
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥2/63 (गीता)
भावार्थ: क्रोधसे संमोह (मूढभाव) उत्पन्न होता है, संमोहसे स्मृतिभ्रम होता है (भान भूलना), स्मृतिभ्रम से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्तिका नाश होता है, और बुद्धिनाश होने से सर्वनाश हो जाता है।
बुद्धि की समाप्ति के साथ ही मनुष्य की चेतना का नाश हो जाता है तथा इसके साथ ही मनुष्य एक न समाप्त होने वाले गर्त में गिर जाता है तथा अंततः स्वयं को समाप्त कर लेता है।
मनुष्य का सर्वोच्च कर्म यह है कि वह स्थिर बुद्धि से कार्य करे एवं आगे बढ़े; इस प्रकार भगवत इच्छा के अनुरूप जीवन सरलता एवँ सुगमता से चलता है।
भारत की सीमाएं
एक बेहद सुन्दर ब्लॉग से मुझे आज चाणक्य सीरियल का चन्द्रगुप्त मौर्या द्वारा दिया गया वह भाषण मिला जो उन्होंने अपने राज्याभिषेक पर दिया था। इसे पढ़ें और आज की स्थिति के अनुसार इसके बारे में सोचें, मैं इसको लिखित रूप में प्रस्तुत करने के लिए इस ब्लॉग के लेखक का आभारी हूँ:-
ब्लॉग का एड्रेस है:”http://kalchiron.blogspot.in“
अरट्ट के कुलमुख्यों और वाहिक प्रदेश के विभिन्न गणराज्यों से आये गणमुख्यों का मैं स्वागत करता हूँ. आज वाहिक प्रदेश के अधिकांश जनपद यवनों की दासता से मुक्त हो गए हैं, और शीघ्रही अन्य जनपद भी मुक्त होंगे. अरट्ट जनपद ने अपने प्रशासन का उत्तरदायित्व मेरे कंधो पर डाला हैं, जिसे मैं सहर्ष स्वीकार करता हूँ.
परन्तु वास्तव में जनपदों को शासकों की अपेक्षा एक प्रणाली की आवश्यकता हैं. एक ऐसी प्रणाली जो जनपदीय मानसिकता की संकीर्ण राजनीती से ऊपर उठकर संपूर्ण राष्ट्र को एक परिवार, एक जनपद के रूप में देखेगी, क्योंकि जनपद राष्ट्र का उसी प्रकार अविभाज्य अंग होता हैं. तो विभिन्न जनपद अपने अस्तित्व के लिया संघर्षरत क्यों हैं आपस में? क्या अपने परिवार की किसी पीड़ित सदस्य को देखकर आप पीड़ित नहीं होते? क्या अपने परिवार की किसी अभावग्रस्त सदस्य के अभाव को पूर्ण करने का प्रयत्न नहीं करते? अपने परिवार के किसी सदस्य के सुख-दुःख में आप तठस्थ कैसे रह सकते हैं?
समाज के लिए व्यक्ति का त्याग हमारी परंपरा हैं. किसलिए शिव ने विषपान किया था? किसलिए महर्षि दधिची ने अपनी अस्थियों का दान दिया था? तो आज समाज के लिए व्यक्ति और राष्ट्र के लिए समाज त्याग करने के लिए तत्पर क्यों नहीं हैं? क्यों एक समाज को ये आभास होता हैं की वह दुसरे समाज का विनाश करके ही विकसित और पल्लवित हो सकता हैं? क्यों एक जनपद को भ्रम हैं की दुसरे जनपद का उत्कर्ष उसकी प्रगति में बाधक हैं? क्यों एक व्यक्ति को ये आभास होता है की जीवन के लिया वह दुसरे व्यक्ति से संघर्षरत हैं? क्या बीज पर्ण से संघर्षरत हैं? क्या जड़ें उसपर खड़े वृक्ष से संघर्षरत हैं? तो हम सब संघर्षरत क्यों हैं आपस में? क्या तुम्हे नहीं लगता की पर्ण, जड़, तना, शाखा सब में बीज का रूप विद्यमान हैं? पर फिर भी बीज दिखाई नहीं देता. हमारी राष्ट्रीयता भी इसी प्रकार दिखाई नहीं देती. किन्तु वह प्रत्येक भारतीय में विद्यमान हैं. यदि तुम बीज को खोजोगे तो तुम्हे अपने भीतर की राष्ट्रीयता का आभास होगा. और यदि राष्ट्रीयता का वह बीज हम सब में विद्यमान हैं, तो मैं तुमसे भिन्न कैसे हुआ?
तो क्या आवश्यकता की हमें यवनों से लड़ने की जबकि हम सब जानते हैं की इस पृथ्वी पर रहनेका अधिकार जितना हमें हैं, उतना उन्हें भी हैं. पर फिर भी हमने यवनों के शासन को अस्वीकार कर दिया. क्यों? हमने यवनों का शासन अस्वीकार किया क्योंकि हमें स्वतन्त्रता प्रिय हैं. पर क्या अर्थ हैं इस स्वतंत्रता का? क्या स्वतन्त्रता का अर्थ मात्र किसी शासन या व्यक्ति से मुक्ति हैं? क्या व्यक्ति की स्वतन्त्रता का अर्थ स्वेछा हैं? क्या व्यक्ति को समाज के बंधन स्वीकार नहीं करने पड़ते? क्या समाज को राष्ट्र के बंधन स्वीकार नहीं करने पड़ते? तो व्यक्ति को समाज और समाज को राष्ट्र के बंधन स्वीकार करने के पश्चात् भी क्यों ऐसा लगता हैं की वह स्वतंत्र हैं? क्या हैं वह “स्व” का बोध जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र में सामान्य हैं? क्या हैं वह तंत्र जिससे बंधने की पश्चात भी व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को स्वतन्त्रता का बोध होता हैं? किसने निर्माण किया हैं वह तंत्र जिसे आप सभी स्वेछा से स्वीकार करते हैं? क्या देती हैं वह स्वतन्त्रता जिसके लिए व्यक्ति स्वयं का उत्सर्ग करने के लिए तत्पर हो जाता हैं? क्या हैं वह तंत्र जिसे हम स्व-तंत्र कहते हैं? क्यों हम स्वातंत्र्य में जीना चाहते हैं और यवनों के पारतंत्र्य में नहीं? इस “स्व” और “पर” में क्या अंतर हैं? क्यों हम यवनों के उस तंत्र को स्वीकार नहीं कर पायें?
क्योंकि हमारी उस तंत्र में आस्था हैं जिसका निर्माण हमारे तत्वचिन्तकों और मनीषियों ने किया हैं. क्योंकि हमारी उन जीवनमूल्यों में आस्था हैं जिनका निर्माण हमारे स्वजनों ने किया और समष्टि के कल्याण की वह थाती विरासत में हमारे हाथों में आती गयी जिनका निर्वाह हमारी पूर्व-पीढियों ने किया. शाश्वत सत्य और ज्ञान के प्रकाश में जीवन के जिन मूल्यों का निर्माण हमारे ऋषियों ने किया वह हमारा स्वतंत्र हैं. उन्ही श्रेष्ठ जीवनमूल्यों के प्रकाश में हम हमारे सामाजिक व्यवस्था की प्रणाली निश्चित करते आये हैं. हमारे व्यक्तिगत, सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन का आधार हमारे अपने पूर्वजों का तंत्र ही हो सकता हैं. इसीलिए हम स्वतन्त्रता के आग्रही हैं.
परन्तु क्या वह प्रणाली, क्या वह पद्धति, क्या वह स्वतन्त्रता मालव और क्षुद्रक के लिए भिन्न हैं? क्या केकय और पांचाल के लिए भिन्न हैं? क्या श्रेष्ठ मूल्यों की उपासना भिन्न-भिन्न जनपदों के लिए भिन्न-भिन्न हो सकती हैं? जिन मूल्यों की निर्मिती हमारे पूर्वजों ने की हो वह भिन्न-भिन्न जनपदों के लिए भिन्न-भिन्न कैसे हो सकती हैं? परन्तु हम उस बीज को नहीं देख पा रहे हैं जो वृक्ष के सभी अंगों में विद्यमान हैं. हम संस्कृति के उस प्रवाह को नहीं देख पा रहे हैं जो प्रत्येक जनपद के जीवनधारा में अनुप्राणित हो रही हैं. जनपद उसी विशाल वृक्ष को शाखाएँ हैं, परन्तु हमारा बीज एक ही हैं. हम अपनी जड़ों को नहीं देख पा रहे हैं और बाहरी भिन्नता को देख अपने अन्तरंग की एकात्मता को नकार रहे हैं. अनेकता में एकता को नहीं देख पा रहे हैं. या, उसे जानभूझ कर नकार रहे हैं क्योंकि उसमे राजनीतिक स्वार्थ निहित हैं.
मैं जानता हूँ की कुछ जनपदों की राजनीतिक व्यवस्था में भिन्नता हैं. मगर राजनीतिक व्यवस्था संस्कृति नहीं हैं. राजनीतिक व्यवस्था संस्कृति की पूरक हो सकती हैं, संस्कृति का पर्याय नहीं. संस्कृति का प्रवाह व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को समुत्कर्ष का मार्ग प्रर्दशित करता हैं, तो राजनीति का दायित्व भी व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का उत्कर्ष ही हैं. तो क्यों व्यक्ति व्यवस्था के नाम पर संघर्ष करता हैं? संभवतः इसलिए की वह व्यक्ति और समाज में समस्त हो नहीं देख पाता. अथवा इसलिए की उसका व्यक्तिगत स्वार्थ उसे संघर्ष करने के लिए प्रेरित कर रहा हैं. और इसी व्यक्तिगत स्वार्थ और एकात्मता के भाव के अभाव के कारण हमें यवनों के समक्ष अपना स्वाभिमान समर्पित करने के लिए विवश कर दिया था.
यवनों ने भिन्न-भिन्न जनपदों के आस्था के भेद को नहीं देखा था. आक्रान्ताओं ने सभी के साथ एक जैसा व्यवहार किया था. दुर्भाग्य ही था की सभी जनपदों ने मिलकर यवनों का सम्मिलित रूप से प्रतिकार नहीं किया. क्यों?? क्योंकि हममे राष्ट्रीय चरित्र का अभाव था. यदि सभी जनपदों ने राष्ट्र के रूप में संगठित होकर यवनों का प्रतिकार किया होता तो क्या यवनों के लिए इस धरा पर विजय पाना संभव था? यदि सिन्धु की रक्षा का दायित्व सभी जनपदों के लिया होता तो क्या यवनों को सिन्धु को पार कर पाना संभव था? पर कठ, मद्रक, क्षुद्रक और मालव गणराज्यों को ये विश्वास नहीं हो रहा था की उनके प्रदेशों की सीमाओं का द्वार भी तक्षशिला हैं.
जहाँ तक हमारी संस्कृति का विस्तार हैं, वहां तक हमारी सीमाए हैं. हिमालय से समुद्र पर्यंत ये संपूर्ण भूमि हमारी अपनी भूमि हैं, हमारा अपना राष्ट्र हैं. और इस राष्ट्र की रक्षा हम नहीं करेंगे तो इस राष्ट्र की रक्षा कौन करेगा. यदि हमने अबभी संगठित होकर राष्ट्र के रूप में अपना परिचय नहीं दिया तो आक्रान्ताओं का पुनरागमन हो सकता हैं और इतिहास की पुनरावृत्ति. यदि हम अबभी संगठित नहीं हुए तो आक्रान्ताओं का मार्ग प्रशस्त हैं. आवश्यकता हैं हमें एक छत्र के नीचे एकत्र होने की. ताकि ये राष्ट्र सुदृढ़ और सक्षम हो, शक्तिशाली हो, गौरवशाली हो, और हम अमृत के अमर्त्य पुत्र कह सकें की प्रशस्त पुण्य-पंथ हैं, बढे चलो बढे चलो..
ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल
दुष्यंत कुमार की पुस्तक “साए में धूप ” एक अपाहिज समाज की व्यथा है जो भारत के आजाद होने के बाद इसके नेताओं ने इसे बना दिया है। एक ग़ज़ल नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ कृपया ध्यान से पढ़ें और सोचें:
ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगो
कि जैसे जल में झलकता हुआ महल, लोगो
-देखिये यहाँ पर दुष्यंत जी खोखले समाज की खोखली तरक्की पर करारा प्रहार कर रहे हैं और कह रहे हैं कि जो तरक्की की रौशनी भारतवर्ष में व्याप्त है ; वह एक धोखा है और जल में झलकते हुए महल की तरह है जो दीखता तो है पर असल में होता नहीं है और उसे महसूस भी नहीं कर सकते हैं। भारत वर्ष में गरीबी और भुखमरी आज भी व्याप्त है तो भारत के तरक्की करने का सवाल ही नहीं होता। जब तक निम्नतम वर्ग का नागरिक इस तरक्की का भागीदार न हो तब तक यह एक छल मात्र है।
दरख़्त हैं तो परिन्दे नज़र नहीं आते
जो मुस्तहक़ हैं वही हक़ से बेदख़ल, लोगो
-पेड़ हैं तो उस पर परिंदे नहीं नजर आते, जो हकदार हैं वही हैं हक़ से बेदखल। दुष्यंत जी की व्यथा यहाँ और भी गंभीर हो जाती है और वे सीधे सीधे कहते हैं कि जिन परिंदों का दरख़्त कभी घर हुआ करता था; वे परिंदे अब नजर नहीं आते और जो हकदार हैं उन्हें हक़ से वंचित होना पद रहा है। किसान को और मजदूर को ले लीजिये। किसान जो समूचे राष्ट्र को अन्न पैदा करके देता है; वह भूखा सोता है और मजदूर जिसकी मेहनत से एक इमारत खड़ी होती है वह बिना छत के सोता है। तरक्की यहाँ बेमानी है।
वो घर में मेज़ पे कोहनी टिकाये बैठी है
थमी हुई है वहीं उम्र आजकल ,लोगो
किसी भी क़ौम की तारीख़ के उजाले में
तुम्हारे दिन हैं किसी रात की नकल ,लोगो
–
देखिये यहाँ दुष्यंत जी की व्यथा, वे कह रहे हैं कि आपकी तरक्की तो किसी की तरक्की की नक़ल मात्र है।
तमाम रात रहा महव-ए-ख़्वाब दीवाना
किसी की नींद में पड़ता रहा ख़लल, लोगो
-कोई तो तमाम रात स्वप्न में खोया रहा और कोई अपनी बेकारी के कारण सो ही नहीं पाया। हमारी तरक्की की मिसाल एक पूरी तरह से असमान समाज की संरचना है। जहाँ अमीर और अमीर हो रहा है वहीँ गरीब और गरीब हो रहा है। भारतवर्ष में व्याप्त यह सामाजिक ताना बाना कहीं से भी तरक्की की मिसाल कायम नहीं करता।
ज़रूर वो भी किसी रास्ते से गुज़रे हैं
हर आदमी मुझे लगता है हम शकल, लोगो
दिखे जो पाँव के ताज़ा निशान सहरा में
तो याद आए हैं तालाब के कँवल, लोगो
वे कह रहे हैं ग़ज़लगो नहीं रहे शायर
मैं सुन रहा हूँ हर इक सिम्त से ग़ज़ल, लोगो।
-इन महान रचनाओं में भारत के समाज की सही रचना सामने आती है जो इस भारत से बिलकुल परे है जो सरकारें या मीडिया सच में हम सबको दिखाते हैं।
“क्या जय महाराष्ट्र सही है”
यही कोई पंद्रह वर्ष पहले दूरदर्शन पर एक सीरियल आता था “चाणक्य” नाम से . देश प्रेम के वाक्यों से लबालब यह सीरियल सही मायने में एक महान रचना थी। उस सीरियल के एक एपिसोड में चाणक्य कहते हैं,
“यवनों ने भिन्न-भिन्न जनपदों के आस्था के भेद को नहीं देखा था. आक्रान्ताओं ने सभी के साथ एक जैसा व्यवहार किया था. दुर्भाग्य ही था की सभी जनपदों ने मिलकर यवनों का सम्मिलित रूप से प्रतिकार नहीं किया. क्यों?? क्योंकि हममे राष्ट्रीय चरित्र का अभाव था. यदि सभी जनपदों ने राष्ट्र के रूप में संगठित होकर यवनों का प्रतिकार किया होता तो क्या यवनों के लिए इस धरा पर विजय पाना संभव था? यदि सिन्धु की रक्षा का दायित्व सभी जनपदों के लिया होता तो क्या यवनों को सिन्धु को पार कर पाना संभव था? पर कठ, मद्रक, क्षुद्रक और मालव गणराज्यों को ये विश्वास नहीं हो रहा था की उनके प्रदेशों की सीमाओं का द्वार भी तक्षशिला हैं. जहाँ तक हमारी संस्कृति का विस्तार हैं, वहां तक हमारी सीमाए हैं. हिमालय से समुद्र पर्यंत ये संपूर्ण भूमि हमारी अपनी भूमि हैं, हमारा अपना राष्ट्र हैं. और इस राष्ट्र की रक्षा हम नहीं करेंगे तो इस राष्ट्र की रक्षा कौन करेगा. यदि हमने अबभी संगठित होकर राष्ट्र के रूप में अपना परिचय नहीं दिया तो आक्रान्ताओं का पुनरागमन हो सकता हैं और इतिहास की पुनरावृत्ति. यदि हम अबभी संगठित नहीं हुए तो आक्रान्ताओं का मार्ग प्रशस्त हैं. आवश्यकता हैं हमें एक छत्र के नीचे एकत्र होने की. ताकि ये राष्ट्र सुदृढ़ और सक्षम हो, शक्तिशाली हो, गौरवशाली हो, और हम अमृत के अमर्त्य पुत्र कह सकें की प्रशस्त पुण्य-पंथ हैं, बढे चलो बढे चलो..”
आज कल राज ठाकरे राष्ट्रीय चेन्नलों पर अपने एक घटिया से बयान के कारण छाए हुए हैं। अपने बुजुर्ग बाल ठाकरे के नक़्शे कदम पर चलते हुए राज ठाकरे मराठी मानुष, जय महाराष्ट्र का नारा कई वर्षों से बुलंद किये हुए हैं और कांग्रेस की सरकार जानकार उनपर कार्यवाही नहीं कर रही। राज ठाकरे के बढ़ने पर शिव सेना का सीधा नुक्सान होगा और कांग्रेस का फायदा। तो कोई भी उन्हें रोकने की कोशिश नहीं कर रहा और वे लगातार बदजुबानी कर रहे हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज ने औरंगजेब के समय पर “स्वराज” की स्थापना की थी। उसकी खासियत थी कि उन्होंने विदेशी तरीकों की जगह देशी तरीकों को तवज्जो दी थी। उनके राज्य को आक्रान्ताओं से मुक्ति दी थी। ठाकरे परिवार अपना आदर्श छत्रपति को घोषित करते हैं और सीधे सीधे ऐसा करके छत्रपति का अपमान करते हैं। छत्रपति की राजनीति का अध्ययन यदि किया जाए तो आप पायेंगे कि वे हमेशा राष्ट्र प्रेम को तवज्जो देते थे। इसी कारण वे अपने राज्य का विस्तार करते हुए भी अन्याय से दूर रहे। यहाँ तक कि उन्होंने अपने पुत्र को भी नहीं बक्शा। इसके उलट आजकल के ये तथाकथित नेता मराठी अस्मिता के नाम पर राष्ट्र की अस्मिता का हरण कर रहे हैं। उनके इस कदम का क्या नुक्सान हो सकता है वह ऊपर दिए चाणक्य के वाक्यों में स्पष्ट देखा जा सकता है।
संगठन ही जीवन है और संगठित रह कर ही हम महान राष्ट्र के रूप में अपना विकास कर सकते हैं। राज ठाकरे शायद यह भूल रहे हैं कि मुंबई को अंग्रेजों ने बसाया था और एक मछुआरों के गाँव को इतना विशाल रूप यहाँ बसे विभिन्न सम्प्रदायों के लोगों ने दिया क्या मुंबई की कल्पना राजस्थान से आये “बिड़ला ” या गुजरात से आये “टाटा” के बिना की जा सकती है। क्या मराठी मानुष बिहार के विस्थापितों के म्हणत काश जीवन का मुकाबला कर पायेंगे। क्या मराठी मानुष का ढोल पीट रहे मनसे के कार्यकर्ता ईंट, पत्थर को उठाकर वहां इमारतें बनाएँगे, या रिक्शा चलाएंगे? यदि नहीं तो बिहार के बिना महाराष्ट्र कहाँ से संभव है। ऐसा नहीं कि बिहार के केवल मजदूर ही वहां हैं, अपितु वहां पर बिहार के अफसर और बड़े व्यापारी भी हैं। ये सब उस संस्कृति का हिस्सा है जो गर्व से समूचे भारत में सबसे अनूठी संस्कृति होने का सही दंभ भारती है। भारत का संविधान भारत के किसी भी नागरिक को भारत के किसी भी हिस्से में जाकर व्यापार करने की, वहां बसने की आगया देता है। एक घटिया सी पार्टी संविधान से कभी भी ऊपर नहीं हो सकती। यह समझना अति आवश्यक है। इसे केवल बिहार और महाराष्ट्र की समस्या समझकर दरकिनार करने वाले समूचे भारत वासियों को मैं कहना चाहूँगा कि इनके परिवार का कोई आदमी फिर से झंडा उठा कर क्या पता किसी दिन हरियाणा पंजाब के लोगों को निकालने निकल पड़े इसका मूंह तोड़ जवाब देना जरूरी है। जरूरत है ठाकरे परिवार को जेल के अन्दर दाल दिया जाए ताकि भारत एक रह पाए। इस देश में केवल “जय हिंद” का नारा ही बुलंद रहना चाहिए न की “जय महाराष्ट” या कुछ और। कोई भी राज्य, कोई भी धर्म कोई भी जाति राष्ट्र से ऊपर नहीं हो सकती। हमारी अनूठी सांस्कृतिक विविधता का ख्याल केवल हम ही रख पायेंगे कोई और नहीं। ठाकरे परिवार का सामाजिक बहिष्कार करना जरूरी है। -रविद्र
एक बेरोजगार
इस किनारे चलते हुए चुन्नी लाल ने बहती नदिया के पार देखा. इस किनारे बड़े बंगले थे, बड़े बाजार थे, उन बाजारों में केवल कुछ हजार लोग थे। वे लोग ऐसे थे जो चलते थे, उड़ते थे, कभी कभी तो कर्म ऐसा करते थे, जिन कर्मों में कोई धर्म नहीं, जिन आदमियों में कोई सच्चा कर्म नहीं,पर उनका उड़ना कभी कम नहीं हुआ, उनका चलना कभी कम नहीं हुआ. इतने में चुन्नी लाल ने नदिया के उस पार देखा। उस पार कुछ भूखे नंगे लोग चल रहे थे, हाथ में सूखी रोटी थामे, गले में पानी के अरमान पाले, न बंगले दिखे, न बाजार दिखे, पर उसे भूखे आदमी कई हजार दिखे,सभी और प्रश्न थे और सभी इस पार देख रहे थे. उस पार लोग इस पार आने का रास्ता ढूंढ रहे थे। बीच में एक छोटा सा कमजोर पुल बन रहा था, पुल ऐसा कि दोनों किनारों को जोड़ता नहीं था, पर काम उसका पुलिया का ही था। इस पार लोग उस पार के लोगों के बारे में भाषण दे रहे थे, उनके लिए काम करने का दावा कर रहे थे।
व्यथित चुन्नी लाल आगे चल पड़े, आगे चला तो दोनों का नाम दिखा,नदिया का नाम “लोकतंत्र” और पुलिया का नाम “सरकार” था। तभी दोनों छोर कभी मिलते नहीं थे, इस पार के लोग कभी उस पार जाते नहीं थे, उस पार के लोगों को पुलिया इस पार आने नहीं देती थी। नदिया के ये दोनों छोर न कभी मिले थे, और न कभी मिलेंगे।-रविन्द्र सिंह/ 15 अगस्त 2012.