एशियाई प्लेटो चिरकाल कूटनीतिज्ञ अफ़लातून महाराजाधिराज ‘सूरजमल’ सिनसिनवार, भरतपुर (लोहागढ) को बलिदान दिवस पर सत-सत नमन; महाराजा सुरजमल विशेषमुगलों के आक्रमण का प्रतिकार करने में उत्तर भारत में जिन राजाओं की प्रमुख भूमिका रही है, उनमें भरतपुर (राजस्थान) के महाराजा सूरजमल जाट कानाम बड़ी श्रद्धा एवं गौरव से लिया जाता है। उनका जन्म 13 फरवरी, 1707 में हुआ था। ये राजा बदनसिंह ‘महेन्द्र’ के दत्तक पुत्र थे। उन्हेंपिता की ओर से वैर की जागीर मिली थी। वे शरीर से अत्यधिक सुडौल, कुशल प्रशासक, दूरदर्शी व कूटनीतिज्ञ थे। शायद भारत का इकलौता ऐसा महाराजा जिसका खजांची एक दलित हुआ| उन्होंने 1733 में खेमकरण सोगरिया की फतहगढ़ी पर हमला कर विजय प्राप्त की।इसके बाद उन्होंने 1743 में उसी स्थान पर भरतपुर नगर की नींव रखी तथा 1753 में वहां आकर रहने लगे।महाराजासूरजमल की जयपुर के महाराजा जयसिंह से अच्छी मित्रता थी। जयसिंह की मृत्यु के बाद उसकेबेटों ईश्वरी सिंहऔर माधोसिंह में गद्दी के लिए झगड़ा हुआ। सूरजमल बड़े पुत्र ईश्वरी सिंह के, जबकि उदयपुर के महाराणा जगतसिंह छोटे पुत्र माधोसिंह के पक्ष में थे।मार्च 1747 में हुए संघर्ष में ईश्वरी सिंह की जीत हुई। आगे चलकर मराठे, सिसौदिया, राठौड़ आदि सात प्रमुख राजा माधोसिंह के पक्ष में होगये। ऐसे में महाराजा सूरजमल ने 1748 में 10,000 सैनिकों सहित ईश्वरी सिंह का साथ दिया और उसे फिर विजय मिली। इससे महाराजा सूरजमल का डंका सारे भारत में बजने लगा।मई 1753 में महाराजा सूरजमल ने दिल्ली और फिरोजशाह कोटला पर अधिकार कर लिया। दिल्ली के नवाब गाजीउद्दीन ने फिर मराठों को भड़का दिया। अतः मराठों ने कई माह तक भरतपुर में उनके कुम्हेर किले को घेरे रखा। यद्यपि वेपूरी तरह उस पर कब्जा नहीं कर पाये औरइस युद्ध में मल्हारराव का बेटा खांडेराव होल्कर मारा गया। आगे चलकर महारानी किशोरी ने सिंधियाओं की सहायता से मराठों और महाराजा सूरजमल में संधि करा दी।उन दिनों महाराजा सूरजमल की शक्ति अपने चरमोत्कर्षपर थी। कई बार तो मुगलों ने भी सूरजमल की सहायता ली। मराठा सेनाओं के अनेक अभियानों में उन्होंने ने बढ़-चढ़कर भाग लिया; पर किसी कारण से सूरजमल और सदाशिव भाऊ में मतभेद हो गये। इससे नाराज होकर वे वापस भरतपुर चले गये।14 जनवरी, 1761 में हुए पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठा शक्तिओं का संघर्ष अहमदशाह अब्दाली सेहुआ। इसमें एक लाख में से आधे मराठा सैनिक मारे गये। मराठा सेना के पास न तो पूरा राशन था और न हीइस क्षेत्र की उन्हें विशेष जानकारी थी। यदि सदाशिवभाऊ के महाराजा सूरजमल से मतभेद न होते, तो इस युद्ध का परिणाम भारत और हिन्दुओं के लिए शुभ होता। इसके बाद भी महाराजा सूरजमल ने अपनी मित्रता निभाई। उन्होंने शेष बचे घायल सैनिकों के अन्न, वस्त्र और चिकित्सा का प्रबंध किया। महारानी किशोरी ने जनता से अपील कर अन्न आदि एकत्र किया। ठीक होने पर वापस जाते हुए हर सैनिक को रास्ते केलिए भी कुछ धन, अनाज तथा वस्त्र दिये। अनेक सैनिक अपने परिवार साथ लाए थे। उनकी मृत्यु के बाद सूरजमल ने उनकी विधवाओं को अपने राज्य में ही बसा लिया। उन दिनों उनके क्षेत्र में भरतपुर के अतिरिक्त आगरा, धौलपुर, मैनपुरी, हाथरस, अलीगढ़, इटावा, मेरठ, रोहतक, मेवात, रेवाड़ी, गुड़गांव और मथुरा सम्मिलित थे। मराठों की पराजय के बाद भी महाराजा सूरजमल ने गाजियाबाद, रोहतक और झज्जर को जीता। वीर की सेज समरभूमि ही है। 25 दिसम्बर, 1763 को नवाब नजीबुद्दौला के साथ हुए युद्ध में गाजियाबाद और दिल्ली के मध्य हिंडन नदी के तट पर महाराजा सूरजमल ने वीरगति पायी…!!
बागरु (मोती-डूंगरी) की लड़ाई में मुग़ल-मराठा-राजपूत-होल्कर की 7 सेनाओं को इकट्ठा हरा प्रिंस सूरज कहलाये थे महाराजा सूरजमल:
आमेर (जयपुर) राजघराने की राजगद्दी बाबत राजपूत राजा ईश्वरी सिंह और उनके भाई माधो सिंह की लड़ाई थी बागरू की लड़ाई|
इस पर राजा ईश्वरी सिंह ने ब्रजराज बदन सिंह को कुछ यूँ सन्देश भिजवाया:
देषि देस को चाल ईसरी सिंह भुवाल नैं।
पत्र लिख्यौ तिहिकाल बदनसिंह ब्रजपाल कौ।।
करी काज जैसी करी गुरुडध्वज महाराज।
पत्र पुष्प के लेते ही थे आज्यौ ब्रजराज।।
आयौ पत्र उताल सौं ताहि बांचि ब्रजयेस।
सुत सरज सौं तब कहौ थामि ढुढाहर देस।|
इस पर ब्रजराज ने अपने प्रिन्स सूरज के नेतृत्व में 20000 सेना भेजी|
युद्ध-मैदान कुछ यूँ सजा:
20-21-22 अगस्त 1748 तीन दिन की इस ऐतिहासिक लड़ाई में एक तरफ तीन लाख तीस हजार (330000) सैनिकों से सजी मुगल-मराठा पेशवाओं और माधो सिंह के पक्ष वाले राजपूतों की 7-7 सेनायें, तो दूसरी तरह राजा ईश्वरी सिंह के पक्ष में सजी मात्र बीस हजार (20000) की कुशवाहा राजपूत और हरयाणा-ब्रज रियासत भरतपुर की सिर्फ 2 सेनाएं।
एक तरफ छोटे आकार के सैनिक तो दूसरी तरफ ये 7-7 फुटिये लम्बे-चौड़े 150-150 किलो वजनी भरतपुर जाट सेना के सैनिक। एक तरफ अस्सी हजार (80000) की टुकड़ी तो दूसरी तरफ मात्र दो हजार (2000) की टुकड़ी उनको गुर्रिल्ला वार में छका-छका के पीटती हुई। एक तरफ गाजर-मूली की तरह कटते सैनिक तो दूसरी तरफ पचास-पचास (50-50) को मारने वाला एक-एक जाट और कुशवाहा राजपूत सैनिक। एक तरफ 7-7 राजा तो दूसरी तरफ 7 फुटी 200 किलो वजनी अकेले भरतपुर प्रिन्स सूरज। और यह लड़ाई चली भी पूरे तीन दिन थी और वो भी बरसाती तूफानों में अरावली के रेतीले मैदानों और पथरीले पहाड़ों के बीच सरे-मैदान लड़ी गई थी। कुल मिला के क्या ‘ट्रॉय’, क्या ‘ग्लैडिएटर’, क्या ‘स्पार्टा’, क्या ‘300’ और क्या ‘बाहुबली’; इनसे भी कालजयी थिएट्रिकल दृश्य उस युद्धे-मैदान सजा था| कुशवाहा राजपूत सेनापति दूसरे दिन वीरगति को प्राप्त हुआ तो अब सारा दारोमदार अकेले सूरज-सुजान के कन्धों पर आन पड़ा| और तब वो दुदुम्भी मची थी कि रणचंड़ी भी स्तब्ध देखती रह गई और अंत में माधो सिंह की जिद्द की हार हुई और इस प्रकार सूरज-सुजान ने राजा ईश्वरी सिंह आमेर की गद्दी पर विराजमान रखवाये| धन्य है यह धरा, धन्य है वो कायनात, जिसने उस अफलातून को साक्षात् धरती पर चलते हुए देखा, तांडव करते हुए देखा| जिस दौर में राजपूत राजा मुगलों से अपनी बहन-बेटियों के रिश्ते करके जागीररें बचा रहे थे. उस दौर में यह बाहुबली जाट महाराजा अकेला मुगलों से लोहा ले रहा था. सूरजमल को स्वतंत्र हिन्दू राज्य बनाने के लिए भी जाना जाता हैं। तो अपनी यायावरी-यारी निभाने हेतु ठाकुर साहब के आदेश पर कुंवर सूरजमल ने जब 3 लाख 30 हजार सैनिकों से सजी 7-7 सेनाओं {पेशवा मराठा, मुग़ल नवाब शाह, राजपूत (राठौर, सिसोदिया, चौहान, खींची, पंवार)} को मात्र 20 हजार सैनिकों के दम पर बागरु (मोती-डुंगरी), जयपुर के मैदानों में धूळ-आँधी-बरसात-झंझावात के बीच 3 दिन तक गूंजी गगनभेदी टंकारों के मध्य हुए महायुद्ध में अकेले ही पछाड़ा तो समकालीन कविराज कुछ यूँ गा उठे:
ना सही जाटणी ने व्यर्थ प्रसव की पीर,
गर्भ से उसके जन्मा सूरजमल सा वीर|
सूरजमल था सूर्य, होल्कर उसकी छाहँ,
दोनों की जोड़ी फबी युद्ध भूमि के माह||
जाटों से संधि कर, जाटों को ही धोखे में रख दिल्ली अफगानों (अब्दाली) से जीत, जाट राज्य को सौंपने की अपेक्षा मुग़लों को ही देने की छुपी योजना रखने वाले महाराष्ट्री पेशवाओ की चाल को अपनी कुटिल बुद्धि से पहचान, अपने आप पर पेशवाओं द्वारा बिछाए बंदी बनाने के जाल को तोड़ निकल आने वाला वो सूरज सुजान, जब ले सेना रण में निकलता था तो धुर दिल्ली तक मुग़ल भी कह उठते थे:
तीर चलें, तलवार चलें, चलें कटारें इशारों तैं,
अल्लाह-मियां भी बचा नहीं सकदा, जाट भरतपुर आळे तैं!
ऐसी रुतबा-ए-बुलंदी थी लोहागढ़ के उस लोहपुरुष की!
खैर, उनका बुरा सोचने वाले महाराष्ट्री पेशवाओं को पानीपत में सबक मिल ही गया था| और महाराजा सूरजमल ने फिर भी अपनी राष्ट्रीयता निभाते हुए, पेशवाओं के दुश्मन (अब्दाली) से दुश्मनी मोल लेते हुए, पानीपत के घायलों की मरहमपट्टी कर, सकुशल महाराष्ट्र छुड़वाया|
ऐसी नींव और दुर्दांत दुःसाहस की परिपाटी रख के गया था वो सिंह-सूरमा कि आगे चल 1805 में जिनके राज में सूरज ना छिपने की कहावतें चलती थी उन अंग्रेजों को आपके वंशज महाराजा रणजीत सिंह (हमारे यहाँ दो रणजीत हुए हैं, एक ये वाले और दूसरे पंजाबकेसरी महाराज रणजीत सिंह) ने 1-2 नहीं बल्कि पूरी 13 बार पटखनी दी थी और इतना खून बहाया था गौरों का कि:
“हुई मसल मशहूर विश्व में, आठ फिरंगी, नौ गौरे!
लड़ें किले की दीवारों पर, खड़े जाट के दो छोरे!”
और क्योंकि इस भिड़ंत ने अंग्रेजों के इतने शव ढहाये थे कि कलकत्ते में बैठी अंग्रेजन लेडियां, शौक मनाती-मनाती अपने आँसू पोंछना भी भूल गई थी| उनका विलाप करना और शोक-संतप्त होना पूरे देश में इतना चर्चित हुआ था कि कहावत चली कि:
“लेडी अंग्रेजन रोवैं कलकत्ते में”।
आपने कभी देखा हो तो दोनों रणजीतों का जिक्र आज तलक भी जाटों के यहां जब ब्याह के वक्त लड़के को बान बिठाया जाता है तो निम्न गीत गा के किया जाता है:
“बाज्या हो नगाड़ा म्हारे रणजीत का!”
जी हाँ, यह नगाड़ा वाकई में बाजा था, जिसने अंग्रेजों का भ्रम तोड़ के रख दिया था|
महाराजा सूरजमल का जन्म 13 फरवरी 1707 में हुआ. यह इतिहास की वही तारीख है, जिस दिन हिन्दुस्तान के बादशाह औरंगजेब की मृत्यु हुई थी. मुगलों के आक्रमण का मुंह तोड़ जवाब देने में उत्तर भारत में जिन राजाओं का विशेष स्थान रहा है, उनमें राजा सूरजमल का नाम बड़े ही गौरव के साथ लिया जाता है. उनके जन्म को लेकर यह लोकगीत काफ़ी प्रचलित है.
‘आखा’ गढ गोमुखी बाजी, माँ भई देख मुख राजी.
धन्य धन्य गंगिया माजी, जिन जायो सूरज मल गाजी.
भइयन को राख्यो राजी, चाकी चहुं दिस नौबत बाजी.’।
वह राजा बदनसिंह के पुत्र थे. महाराजा सूरजमल कुशल प्रशासक, दूरदर्शी और कूटनीति के धनी सम्राट थे. सूरजमल किशोरावस्था से ही अपनी बहादुरी की वजह से ब्रज प्रदेश में सबके चहेते बन गये थे. सूरजमल ने सन 1733 में भरतपुर रियासत की स्थापना की थी. 1753 तक महाराजा सूरजमल ने दिल्ली और फिरोजशाह कोटला तक अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ा लिया था. इस बात से नाराज़ होकर दिल्ली के नवाब गाजीउद्दीन ने सूरजमल के खिलाफ़ मराठा सरदारों को भड़का दिया. मराठों ने भरतपुर पर चढ़ाई कर दी. उन्होंने कई महीनों तक कुम्हेर के किले को घेर कर रखा. मराठा इस आक्रमण में भरतपुर पर तो कब्ज़ा नहीं कर पाए, बल्कि इस हमले की कीमत उन्हें मराठा सरदार मल्हारराव के बेटे खांडेराव होल्कर की मौत के रूप में चुकानी पड़ी. कुछ समय बाद मराठों ने सूरजमल से सन्धि कर ली।
लोहागढ़ किला:-
सूरजमल ने अभेद लोहागढ़ किले का निर्माण करवाया था, जिसे अंग्रेज 13 बार आक्रमण करके भी भेद नहीं पाए. मिट्टी के बने इस किले की दीवारें इतनी मोटी बनाई गयी थी कि तोप के मोटे-मोटे गोले भी इन्हें कभी पार नहीं कर पाए. यह देश का एकमात्र किला है, जो हमेशा अभेद रहा.।
तत्कालीन समय में सूरजमल के रुतबे की वजह से जाट शक्ति अपने चरम पर थी. सूरजमल से मुगलों और मराठों ने कई मौको पर सामरिक सहायता ली. आगे चलकर किसी बात पर मनमुटाव होने की वजह से सूरजमल के सम्बन्ध मराठा सरदार सदाशिव भाऊ से बिगड़ गए थे..
उदार प्रवृति के धनी
पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों का संघर्ष अहमदशाह अब्दाली से हुआ. इस युद्ध में हजारों मराठा योद्धा मारे गए. मराठों के पास रसद सामग्री भी खत्म चुकी थी. मराठों के सम्बन्ध अगर सूरजमल से खराब न हुए होते, तो इस युद्ध में उनकी यह हालत न होती. इसके बावजूद सूरजमल ने अपनी इंसानियत का परिचय देते हुए, घायल मराठा सैनिकों के लिए चिकित्सा और खाने-पीने का प्रबन्ध किया.
भरतपुर रियासत का विस्तार:-
उस समय भरतपुर रियासत का विस्तार सूरजमल की वजह से भरतपुर के अतिरिक्त धौलपुर, आगरा, मैनपुरी, अलीगढ़, हाथरस, इटावा, मेरठ, रोहतक, मेवात, रेवाड़ी, गुडगांव और मथुरा तक पहुंच गया था. वजीर सफदरजंग के शत्रु मीरबख्शी गाजीउद्दीन खां के नेतृत्व में मराठा-मुगल-राजपूतों की सम्मिलित शक्ति सन् 1754 में सूरजमल के छोटे किले कुम्हेर तक को भी नहीं जीत पाई। सन् 1757 में नजीबुद्दौला द्वारा आमंत्रित अब्दाली भी अपने अमानवीय नरसंहार से सूरजमल की शक्ति को ध्वस्त नहीं कर सका। महज 56 वर्ष के जीवन काल में इन्होंने आगरा और हरियाणा पर विजय प्राप्त करके अपने राज्य का विस्तार ही नहीं किया बल्कि प्रशासनिक ढाँचे में भी उल्लेखनीय बदलाव किये।
युद्ध के मैदान में ही मिली इस वीर को वीरगति:-
हर महान योद्धा की तरह महाराजा सूरजमल को भी वीरगति का सुख समरभूमि में प्राप्त हुआ. 25 दिसम्बर 1763 को नवाब नजीबुद्दौला के साथ हिंडन नदी के तट पर हुए युद्ध में सूरजमल वीरगति को प्राप्त हुए. उनकी वीरता, साहस और पराक्रम का वर्णन सूदन कवि ने ‘सुजान चरित्र’ नामक रचना में किया है.
भारत के इतिहास को गौरवमयी बनाने का श्रेय सूरजमल जैसे निर्भीक अजय वीरो को ही जाता हैं।
“या तो हरदौल को छोड़, वर्ना दिल्ली छोड़”:
हरदौल को मुग़ल बादशाह की कैद से छुड़वाने का किस्सा इस प्रकार है:
दिल्ली मुग़ल दरबार के एक ब्राह्मण दरबारी की बेटी हरदौल को (उसकी माँ की पुकार पर) मुग़ल बादशाह की कैद से छुड़वाने हेतु, महाराजा सूरजमल ने दिल्ली के बादशाह अहमदशाह को कहलवाया कि, “या तो हरदौल को छोड़, वर्ना दिल्ली छोड़!”
अहमदशाह ने उल्टा संदेशा भेजा, “सूरजमल से कहना कि जाटनी भी साथ ले आये,वो हमसे पंडितानी तो क्या छुड़वाएगा!”
इस पर लोहागढ के राजदूत वीरपाल गुर्जर वहीँ बिफर पड़े और वीरगति को प्राप्त होते-होते कह गए, “तू तो क्या जाटनी लैगो, पर तेरी नानी याद दिला जैगो, वो पूत जाटनी को जायो है।”
इस पर सूरजमल महाराज ललकार उठे, “अरे आवें हो लोहागढ़ के जाट, और दिल्ली की हिला दो चूल और पाट!”
और जा गुड़गांव में डेरा डाल, बादशाह को संदेश पहुंचवाया, “बादशाह को कहो अपनी बेटी की इज्जत बचाने को जाट सूरमे आये हैं, और साथ में जाटनी (महारानी हिण्डौली) को भी लाये हैं, अब देखें वो जाटनी ले जाता है या हमारी बेटी को वापिस देने खुद घुटनों के बल आता है।”
और मुग़ल सेना पर महाराजा सूरजमल का कहर ऐसा अफ़लातून बन कर टूटा कि मुग़ल कराह उठे:
तीर चलें,तलवारें चलें, चलें कटारें इशारों तैं,
अल्लाह मियां भी बचा नहीं सकदा, जाट भरतपुर आळे तैं।
और इस प्रकार दिल्ली बादशाह ने ब्राह्मण की बेटी भी वापिस करी और एक महीने तक जाट महाराज की मेहमानवाजी भी करी।
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